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• अमरत्वदायिनी अनुकम्पा
[२५२] हैं। दया-हीन व्यक्ति कमी भी श्री-सम्पन्न नहीं हो सकता।
दया से अगला लाभ है, सुगति की प्राप्ति होना। हृदय में दया को धारण करने वाला प्राणी कभी निकृष्ठ या निम्न गति में नहीं जाता, निश्चय ही वह उँचाई की ओर बढ़ता है। इसीलिये कहा गया है कि दया स्वर्ग के लिये एक नसैनी के समान है। जिसके सहारे से जीव उपर की ओर बढ़ता है।
इतना ही नहीं, दया को मोक्ष प्राप्ति का कारण भी माना गया है। दया मानव की आत्मा के लिये एक अन्तरंग सखी का काम करती है तथा उसे प्रतिपल सुकृत्य करने की प्रेरणा और सलाह दया करती है। परिणाम यह होता है कि जीव कभी पथभ्रष्ट नहीं होता तथा निरन्ता सन्मार्ग पर चलता हुआ अन्त में मोक्ष-धाम को प्राप्त करता है। इसीलिये दया को लोक में कुगति के महाभयानक और विशाल काय द्वार की अर्गला माना है। हमारे जैन-शास्त्र इसीलिये बार-बार कहते हैंजगत के जी तौको आतम ममान जान,
सुख अभिलाषी राब दःख से डरत हैं। जाणी हम प्राणी पालो दया 'हित आणि
यही मोक्ष की निमाणी जिनवाणी उचरत है। जिनवाणी क्या कहती है? यही कि जगत के समस्त जीवों को अपनी आत्मा के समान समझो! और यही मानकर कि समस्त प्राणी दुख से डरते हैं तथा सुख की अभिलाषा रखते हैं, तुम दया का पालन करो! दयारूपी इस नसैनी के सहारे से ही तुम मुक्ति-महल की ओर का सकोगे।
अपने श्लोक में आचार्य ने दापा-पालन से प्राप्त होने वाले कई लाभ बताते हुए अन्त में केवल इतना ही कहा है - 'अगर तुमसे और-और धर्म-क्रियाएँ नहीं हो सकतीं, नाना प्रकार के उपसर्ग और परीषह सहन नहीं होते तथा अन्य कड़े नियमों का पालन भी नहीं हो पाता तो उन सबको परे रहने दो, पर एक दया की भावना को दृढता से धारण किये रहो तो भी निश्चय ही तुम्हारी आत्मा का कल्याण हो जायगा।
सन्त तुलसीदास जी ने भी स्पष्ट और सरल शब्दों में यही कहा है :
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िये, जा लग घट में प्रान ।।
सन्त ने दया-पालन पर कितना जोर दिया है? कहा है .- जब तक तुम्हारे शरीर में प्राण विद्यमान हैं, झाका त्याग मत करना, क्योंकि धर्म का मूल ही दया है।
वास्तव में ही दया एक ऐसा अलौकिक गुण है, जिसके प्रभाव से अन्य