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आनन्द प्रवचन : भाग १
सम्भव नहीं होता और इसी कारण शनैः-शनै: हि संसार-सागर से पार हो जाता है। अर्थात् जन्म-मरण से छूट जाता है।
दया से चौथा लाभ है - जो व्यक्ति या अथवा अनुकम्पा की भावनाओं को अपने हृदय में प्रतिष्ठित करेंगे वे अनेकानेन व्यसनों से भी परे रह सकेंगे। क्योंकि दुर्व्यसनों के कारण अन्य अनेक प्राणियों को दुख पहुँचता है। यथा-चोरी करने से जिसका धन चुराया जाता है, जुए और शराब की लत होने से व्यर्थ धन का व्यय होने पर कुटुम्ब के व्यक्तियों का अर्थाभाव का कष्ट सहन करना पड़ता है तथा प्राय: फाँक करने की नौबत भी आ जाती है। दुराचार से पत्नी को मानसिक कष्ट बना रहता है। इसी प्रकार भी दुर्व्यसन किसी न किसी को पीड़ा तथा दुख पहुँचाते ही हैं। श्री अमीऋषि जी महाराज ने अपने एक पद्य में बताया है कि. इन दुर्व्यसनों के कारण किस प्रकार : पाण्डव, यादव,रावण तथा ब्रम्हदत्त आदि कुलीन और बड़े-बड़े राजाओं ने अपने सम्पूर्ण वंश का तो नाश किया ही, स्वयं भी कुगति में जा पहुंचे। पद्य में कहा है :
जूवा खेली पांडवा गमायो राज साज गमब,
मांस भखी बकराय नरक सिपायो है। मदिर प्रसंग सब जादव को नाशभयो,
वेश्या संग धम्मिलकुमार नेहायो है ।। आखेट ते ब्रम्हदत्त, सत्यघोष ले अदत्त, .
परदारा संग दशकंध दुःख पयों है। कहे अमीरिख घने कुगति परे हैं तातें,
व्यसन तजन उपदेश दरसायों है। पद्य में दिया गया उपदेश कितना यथा है? वास्तव में ही जुआ, चोरी, मदिरा, शिकार तथा दुराचार ने जब ऐसे महान राजा-महाराजाओं को भी कहीं का न रखा, तो फिर साधारण प्राणी की तो बिसाता ही क्या है कि वह इन व्यसनों में पड़ा रहकर भी औरों को इनके दुःखदायी प्रभाव से बचा सके।
इसलिये आवश्यक है कि मनुष्य अनुक्ग्या को हृदय में स्थान दे तथा दुर्व्यसन जनित नाना प्रकार के अनर्थों से बचे। अनुकम्पा में महान् शक्ति है। जैसा कि श्लोक में कहा गया है - व्यसन-रूपी भयंकर अग्नि को भी दयारूप मेघपटल अपनी शीतल व शांतिमय वर्षा से शांत कर देते हैं।
आगे कहते हैं - श्री का वरण करी के लिये भी दया संकेत रूपी दती का काम करती है। अभी-अभी हमने श्री अमीऋषि जी महाराज के पद्य से जाना है कि दया हीन तथा दुर्व्यसनी व्यकियों व्त सुख और शांति के साथ-साथ ही लक्ष्मी ने भी परित्याग कर दिया था। इसमें स्पष्ट हो जाता है कि लक्ष्मी भी उन्हीं श्रेष्ठ पुरुषों का वरण करती है, जो स्यमी सदाचारी और दयावान होते