SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमरत्वदायिनी अनुकम्पा [२४८] किन्तु दुर्गुण जो कि मंगते और भिखारियों के समान होते हैं, मौका पाते ही आ धमकते हैं तथा प्रयत्न करने पर भी लौटने का नाम नहीं लेते। यही आसुरी सम्पत्ति का सहज ही प्राप्त होना कहलाता है। • सदगुणों की अपेक्षा दुर्गुण शक्तिशाली अधिक होते हैं। हम प्रायः देखते भी हैं कि सहनशीलता, नम्रता या विनय आणि सदगुणों को तो इन्सान तनिक सी भी मान हानि या कष्ट पाते ही त्याग देता है किन्तु क्रोध, कषाय या वैर-भाव पर वह सहज ही काबू नहीं पाता। कभी-कभी तो ईर्ष्या, द्वेष या वैर भाव मनुष्य के हृदय पर उसके जीवन पर्यन्त सिक्का जमाए ही रहते हैं। परिणाम यह होता है कि उसे न इस लोक में शांति मिलती है और न उसके बाद भी उसकी आत्मा शांति को प्राप्त होती है। ऐसे आसुरी संपत्ति के अधिकारी जीव को ही बार-बार चेतावनी दी जाती है : "किं न पश्यसि दोषममीचा तापमत्र नरकं च परत्र ॥" भावार्थ है 'क्या तू कषायों के इन दोषों को नहीं देखता है ? कषाय यहाँ पर भी दुःख देते हैं और मरने पर आत्मा को नरक में ले जाते हैं। - कहने का अभिप्राय यही है कि आसुरी भावनाएँ अत्यन्त शक्तिशाली होती हैं और वे दैवी भावनाओं पर अपना प्रभुत्व जमाये रखने का प्रयत्न करती हैं। किन्तु कहा जाता है - "बहुरत्ना वसुन्जरा।" इस पृथ्वी पर कोई-कोई नर पुंगव ऐसे भी अवतीर्ण होते हैं जो आसुरी भाऊनाओं पर सम्पूर्णतया विजय प्राप्त कर ही लेते हैं। उन पर कितने भी कष्ट क्यों न आए, कितनी भी कठिनाईयाँ उन्हें क्यों न उठानी पड़े, यहाँ तक कि जान पर भी खेल जाने की स्थिति उनके सामने क्यों न आ जाय, वे अपनी दैविक भावनाओं को बेकाबु नहीं होने देते। आसुरी भावनाओं के विजेता सेठ सुदर्शन एक ऐसे ही महापुरुष थे जिन्होंने स्वयं तो आसुरी भावनाओं पर पूर्णतया विजय प्राप्त कर ही ली थी साथ ही अपने प्रभाव से महापापी अर्जुनमाली जैसे आसुरी भावनाओं के अधिकारी को भी अपने जैसा बना दिया था। 'अन्तगड सूत्र' में वर्णन शरीर में प्रवेश कर लिया तो वह प्राणियों की हत्या करने लगा। आता है कि जब एक यक्ष ने अर्जुनामाली के नित्य । छः पुरुष और एक स्त्री इस प्रकार सात सम्पूर्ण नगर निवासी उससे आतंकित थे और नगर से बाहर जाने की हिम्मत नहीं करते थे। पर जब भगवान महावीर वहाँ पधारे और नगर के बाहर ही उद्यान में ठहरे तो सुदर्शन सेठ भगवान के दर्शन की आकांक्षा को नहीं रोक सके। दर्शनार्थ
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy