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आनन्द प्रवचन : भाग १ जाने के लिए तैयार होकर उन्होंने अपने माता-पिता से जाने की आज्ञा माँगी।
पुत्र की बात सुनकर माता-पिता चौंक पड़े। तथा भय-विह्वल स्वर से बोले - "अर्जुनमाली के डर से राजा श्रेणिक ने जो मुनादी करवादी है कि कोई भी नगर से बाहर न जाय, चाहे कैसा भी जरूरी कार्य क्यों न हो। फिर तुम क्यों मौत के मुँह में जाना चाहते हो? तुम्हें भगवान को वन्दन करना है तो यहीं से करलो। भगवान तो सबके मन की बात जानते हैं।"
पर सुदर्शन सेठ माने नहीं। कहा -. "भगवान तो सबके मन की बात जानते है पिताजी! पर मुझे तो यहाँ से उनके दर्शन नहीं हो सकते। किसी दूर-देश में उनके होने पर तो भाव-वन्दन किया जा सकता है। पर जबकि वे इसी नगर के बाहर विराजमान हैं तो मुझे यहाँ बैठे-बैठे उनको वन्दन करने से कैसे तृप्ति हो सकती है? मै तो उनके दर्शन प्रत्यक्ष करना चाहता हूँ।"
माता-पिता ने बहुत समझाया और उनी रोकने की कोशिश की, किन्तु दृढ़ विचारों वाले सुदर्शन सेठ माने नहीं और भगवान के फर्शनार्थ चल दिये।
मार्ग में उन्होंने देखा कि विकराल अखें किये अर्जुनमाली उन्हीं की ओर भागा चला आ रहा है। मुद्गर वाला हाथ उसने ऊँचा उठा रखा है।
कोई साधारण व्यक्ति होता तो अर्जुनमाली की भयावनी शक्ल देखकर ही दम तोड़ देता। किन्तु दैवी भावनाओं के स्वामी सुदर्शन सेठ उसे देखकर रंच-मात्र भी नहीं घबराए। मन ही मन भगवान को नमस्कार करते हुए बोले "प्रभु! अगर इस उपसर्ग से बच गया तो आपके प्रत्यक्ष दर्शन करूँगा, अन्यथा यहीं से वन्दन कर रहा हूँ।"
ऐसी भावना भाते हुए धर्म-परायण मृदर्शन सेठ सागारी संथारा लेकर वहीं बैठ गए तथा ध्यान में लीन हो गए।
इतने में ही अर्जुनमाली दौड़ता हुआ उनके समीप आया और मुद्गर उठाए हुए ही उन पर झपटा। पर बड़े आश्चर्य की बात हुई कि उसका हाथ में उठाया हुआ मुद्गर नीचे नहीं गिरा तथा हाथ समेत ही वह ऊपर की ओर ज्यों का त्यों बना रहा। अर्जुनमाली ने सुदर्शन सेठ के मस्तक पर मुद्गर गिराने की बहुत कोशिश की पर नाकामयाब ही रहा।
अन्त में दैवी भावना ने आसुरी भकाना पर विजय प्राप्त की। अर्जुन माली गश खाकर गिर पड़ा और यक्ष उसी क्षण उसके शरीर से निकल गया।
ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि अगर अपनमाली के पास देव का जोर था तो सुदर्शन श्रावक के पास तो देवाधिदेव का बला था। देवाधिदेव पर जोर कैसे चलता? जिस प्रकार गवर्नर पर कलेक्टर का, कलैन्टर पर तहसीलदार का और एस.पी. पर साधारण सिपाही का अधिकार नहीं कर सकता। उसी प्रकार देवाधिदेव पर