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आनन्द प्रवचन : भाग १
धिक् भूमिवरी, जन्म भाचा खरी,
___नाहिं केली जरी, ज्याने भूत दया। - जिस मनुष्य के हृदय में प्राणिर के लिए अनुकम्पा नहीं है। तथा दूसरों के दुखों को देखकर जिसका हृदय दाम से पिघलता नहीं है, उस मनुष्य को बार-बार धिक्कार है तथा इस पृथ्वी पर उसका फन्म लेना निरर्थक है।
इस प्रकार जैन-धर्म के अलावा अन्य धर्मों में भी अहिंसा तथा दया को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। भगवद्गीता में दो प्रकार की सम्पत्ति मानी गई है। प्रथम दैवी सम्पत्ति और दूसरी आसुरी सम्पत्ति।
दोनों में अन्तर......। प्रश्न उठता है कि दैवी सम्पत्ति किसे कहा हैं तथा आसुरी सम्पत्ति किसे ?
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिगृह, संत्रोष तथा सहनशीलता आदि सद्गुण दैवी सम्पत्ति कहलाते हैं। तथा झूठ, कपट, हिसा, क्रोध एवं कषायादि दुर्गुण आसुरी संपत्ति में आते हैं।
आश्चर्य की बात तो यह है कि दैवी संपत्ति बड़ी कठिनाई से जुटती है। उसके लिये महान परिश्रम, त्याग और संयम की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु आसुरी संपति अनचाहे और सहज ही इकट्टी हो जाती है। उदाहरणस्वरूप कोई व्यक्ति किसी राजा, महाराजा या अन्य किसी महान व्यक्ति को अपने घर पर आमंत्रित करे तो उसे कितनी सफाई, सजावट करनी पड़ती है। खान-पान के प्रबंध का तो पूछना ही क्या है, वह तो आमंत्रण देने वाले रईस की प्रतिष्ठा का माप-दंड ही बन जाता है। किन्तु इतना सब करने पर भी हो सकता है कि आमंत्रित मेहमान किसी कारण वश न भी आए। प्रायः हम देखते हैं | के बड़े-बड़े नेता या अन्य महापुरुष अपने आने की स्वीकृति दे देने पर भी नहीं आ पाते और निमन्त्रण देने वाले व्यक्ति निराश होकर चुपचाप बैठ जाते हैं।
किन्तु आपको मालूम ही होगा कि शार के कंगले और भिखारी तो आपके द्वार पर थोड़ी सी भी हलचल देखते ही शकर खड़े हो जाते हैं। क्या आप उन्हें कभी निमंत्रण देते हैं? नहीं, उन्हें न्यति-निमंत्रण की आवश्यकता ही नहीं रहती। वे तो बिना बुलाये ही आने को तैयार रहते हैं और आ जाने पर भगाये नहीं भागते। चाहे उन पर कितने भी कट्रवाकनों और गालियों की बौछार क्यों न की जाय।
बंधुओ, आपने समझ लिया होगा कि रुद्गुण भी उन महान् या बड़े आदमियों के सदृश होते हैं, जिन्हें बुलाने की लाख तशिशें की जाती हैं तब भी उनका आना संदिग्ध होता है। अर्थात् सद्गुणों का गप जिसे हम दैवी सम्पत्ति कहते हैं उसका मिलना अत्यन्त कठिन होता है।