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________________ • बलिहारी गुरु आपकी... [२४२] है, उसी प्रकार साँसारिक प्राणी संत समागम से सुवर्ण के समान मूल्यवान बन सकता है। इस विषय में भी संत तुकाराम जी का कथन है लोहपरीसाशी न साहे उमा, सदगुरु महिमा अभाति ||३|| - कहा है कि लोहे को सोना बना देने वाले पारस की उपमा तो संत के लिए बहुत ही कम है। सद्गुरु की महिमा तो उससे भी बढ़कर है। क्योंकि पारस ने अपने स्पर्श से लोहे को सोना बनाया तो क्या हुआ ? काले रंग से पीला रंग प्राप्त हुआ तथा जो लोहा सेर के भाव से बिकता वह तोले के भाव से बिकने वाला बन गया। अर्थात् उसके मूल्य में अभिवृद्धि हो गई। पर सद्गुरु के सम्पर्क से तो एक तुच्छ और अधम प्राणी भी स्वयं उनके समान ही बन जाता है। तो सद्गुरु का महत्त्व पारस से भी अधिक हुआ या नहीं ? उदाहरणस्वरूप राजा सम्प्रति शिकार खेलने, अर्थात् जीव-हिंसा करने आया था पर उसे संत समागम होते ही वह स्वयं संत बन गया। राजा श्रेणिक उद्यान में हवाखोरी के लिए गया था पर अनार्थ । मुनि ने अपने धर्मोपदेश से उसे धर्ममार्ग में प्रविष्ट करा दिया। राजा परदेशी जो कि अपने हाथ खून से हर वक्त रंगे रहता था, केशी मुनि के प्रभाव से साधु बन गया और चंद दिनों में ही समस्त कर्मोंका क्षय करके संसार-मुक्त हो गया। यह प्रभाव किसका ? संत या सद्गुण का ही तो है। सद्गुरु के अलावा संसार में और किसकी ताकत है जो नए को नारायण बना सके तथा आत्मा को परमात्मा के पद पर प्रतिष्ठित कर सके ? आधुनिक युग में विज्ञान की शक्ति सबसे महान् शक्ति मानी जाती है जिसके द्वारा मानव चन्द्रलोक की और मंगललोक की भी सैर कर सकता है तथा अपने एक अणुबम से पृथ्वी को प्राणी रहित करदेने की क्षमता रखता है। किन्तु क्या वह किसी मानव को महामानव बना सकता है? किसी मानव के कर्मों का नाश कर सव्वता हैं? किसी आत्मा को शाश्वत शाँति और अक्षय सुख अर्थात् मोक्ष दिला सकर्क की क्षमता रखता है? नहीं, वह शक्ति सद्गुरु के अलावा और किसी में भी नहीं हो सकती। फिर भी संसार इस बात को समझने की कोशिश नहीं करता। अत: अपने अन्तिम चरण में कवि कड़े शब्दों में कहते हैं - तुका म्हणे कसे आंधले जन, गेले विसरुन खऱ्या देव ॥४॥ अर्थात् यह दुनियाँ कैसी अंधी जो बोलते चलते और धर्मोपदेश करते हुए देव को छोड़कर दूसरी तरफ चलती है। मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि वह सम्यक्ज्ञान हासिल करे। क्योंकि
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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