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________________ • [२४३] आनन्द प्रवचन : भाग १ ज्ञान के अभाव में आत्म-कल्याण की आकक्षा कमी पूर्ण नहीं हो सकती। कहा "ज्ञानाभावनया कर्माणि नमन्ति न संशयः।" - तत्त्वामृत सम्यज्ञान पूर्वक सात्विक भावनाओं का आराधन करने से कर्म नष्ट हुआ करते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है। इसलिए आवश्यक है कि मुमुक्ष प्रापी सर्वप्रथम सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति का प्रयत्ल करे। और ज्ञान-प्राप्ति कैसे की जा सती है इस विषय में मैं काफी बता चुका हूँ। संक्षेप में इतना ही कि व्यकि कितना भी चतुर और कुशाग्र बुद्धिवाला क्यों नहो, सदगुरु के अभाव में सचा तथा प्रसार-मुक्त कराने वाला ज्ञान-प्राप्त नहीं कर सकता। जैसा कि कहा भी गया है --- बिना गुरुभ्यो गुणनीरधीम्यो, जानाति तत्त्वं न चिक्षणोपि। आकर्ण - दीर्घामितलोचनोशेष, दीपं बिना पश्यति नांधकारे॥ अर्थात गुणसागर गुरु के बिना अति विचक्षण बुद्धि वाला व्यक्ति भी तत्वों को नहीं जान सकता। जिस प्रकार कि कानों तक फैले हुए विशाल नेत्रों वाला व्यक्ति दीपक की सहायता के बिना अन्धकार में कुछ भी नहीं देख सकता। इसीलिए गुरु के लिए कहा गया है 'गुरुस्तु दीपवत् मार्गदर्शकः। यानी गुरु दीप के समान मार्गदर्शन करते हैं। तो बन्धुओ, आप समझ गये होंगे कि मनुष्य-जन्म रूपी वृक्ष का दूसरा फल गुरु की उपासना क्यों बताया गया है, तथा गुरु का महत्त्व प्राचीन कवियों ने गोविन्द अर्थात् ईश्वर से भी बढ़कर क्यों माना है? कहने की आवश्यकता नही हैं कि हमें इस मानव-पर्याय को सार्थक करी के लिए सदगुरु की शरण में जाना चाहिए तथा उनके बताये हुए मार्ग पर चल कर अपनी आत्मा को अजर-अमर बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। समय हो चुका है, अतः मनुष्य-जन्म रूपी वृक्ष के तीसरे फल 'सत्वानुकम्पा' पर हम कल विचार विमर्श करेंगे।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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