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________________ • [२३७] आनन्द प्रवचन : भाग १ भर तक पुस्तक-ज्ञान कराकर अपनी तनख्वाह लेना ही अपना परम कर्तव्य समझते हैं। इतने मात्र से ही उनके कर्तव्य की इति श्री हो जाती है। छात्रों का चरित्र-निर्माण होता है या नहीं इस बात से उन्हें कोई मतलब नहीं रहता। उनका एकमात्र और मुख्य उद्देश्य शिक्षण के द्वारा अर्थोपार्जन करना होता है। इसलिए महापुरुष ज्ञान के सच्चे अभिलाषी को सीख देते हैं : लोभी गुरु तारे नहीं, तिरेको तारण हार। - जो तू तिरणो चाहिए, निर्मभी गुरु धार॥ क्या सीख दी गई है इस पद्य में: यही कि अगर तू संसार-सागर से पार उतरना चाहता है तो ऐसा गुरु खोज, जो कि स्वयं भी इस संसार-सागर को तैर कर पार करने में समर्थ हो और उसरों को भी पार उतारने की क्षमता रखता हो। सचे गुरु केवल अपनी वाणी से ही शेष्यों को शिक्षा नहीं देते वरन् अपने जीवन से भी मूक शिक्षा देते हैं। शिष्य उनवे वाणी से आध्यात्मिक या पारमार्थिक शिक्षा प्राप्त करता हुआ उनके जीवन से भी । निर्लोभ, नि:स्वार्थी, नैतिकता, सदाचार तथा चरित्र-निर्माण की शिक्षा प्राप्त करता चल जाता है। सद्गुरु किसी प्रकार के लोभ या स्वार्थ की पूर्ति के लिए अपने शिष्योंको ज्ञान दान नहीं देते। उनका उद्देश्य अपने शिष्यों का जीवन-निर्माण करना बनता है। और इसलिये उनका ज्ञान-दान सर्वागीण होता है। वे अपने शिष्यों को मन, बचन और शरीर से पूर्ण शुध्द, पवित्र और उच्च बनाने का प्रयत्न करते हैं। तथा इसी उद्देश्य को सामने रखकर पूर्ण ब्रह्मचर्य तथा संयम की साधना कराते हुये लौकिक और पारमार्थिक ज्ञान प्रदान करते शिष्य कैसे होने चाहिये? अभी हमने सदगुरु अर्थात् सचे गुरु के महत्त्व और लक्षणों के विषय में जाना, पर अब यह जानना भी आवश्यक है कि शिष्य के लक्षण और कर्तव्य क्या हैं? आज के युग में देखा जाता है के स्कूल या कॉलेज का समय होते ही छात्र अपनी पुस्तकें लेकर वहाँ पहुँचते हैं और बंधे हुए समय में किताबें पढ़-पढ़कर छट्टी की घन्टी बजते ही वहाँ से घर के लिए रवाना हो जाते हैं। स्कूल के समय से पहले और बाद में शिक्षकों से उनका कोई सरोकार नहीं रहता। परिणाम यह होता है कि स्कूल में वे किताबी ज्ञान तो छ हासिल कर लेते हैं पर जीवन-निर्माण के लिए जो ज्ञान आवश्यक है वह उन्हें नहीं मिल पाता। इसलिये हमारे श्लोक में मनुष्य जन्मस्त्यी वृक्ष के दूसरे फल में 'गुरुपर्युपास्ति:' लिखा गया है। अर्थात् गुरु के अधिक से अधिक नजदीक या उनके आस-पास ही रहना। जब तक गुरु का सामीप्य अधिक से अधिक न मिले, तब तक छात्र को पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है। इसीलिए तो प्राचीन कालमें गुरु वनों
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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