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मानव जीवन की महत्ता
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भक्ति, चिन्तन-मनन, स्वाध्याय और पूजा सार्थक हो सकती है। और इसके लिये मन को साधने की आवश्यकता सर्वप्रथम एवं अनिवार्य चीज है। संसार के सभी महापुरुष मन की शुध्दता, पवित्रता और मन के संयम पर जोर देते हैं। कहते
मोक्ष मिले नहीं गायन से, शिव नाहिं मिले तन भस्म रमाये। छाडि के गेह बसे वन हुँ नहीं मोक्ष मिले बस-ध्यान लगाये। चारहुँ थाम भ्रमे न मिले शिव नाहिं मिले सुख मौन रहाये।
कंद भखे न मिले शिव अमृत माक्ष मिले मन को वश लाये।
जोर-जोर से भजन-कीर्तन करने , घन्टे बजा-बजा कर आरती करने से अथवा शरीर पर भस्म रमाने और तिलक- छापे लिखने से मोक्ष नहीं मिलता। न ही मोक्ष घर छोड़कर वन जाने और वहाँ पर बगुले के समान ध्यान लगाने से ही मिलता है। मोक्ष चारों धाम के मंदिरों में सिर पटकने से या मौन ले लेने से भी नहीं मिलता। अन्न-त्याग कर केवल कंद-मूल का भक्षण करने से भी मुक्ति रूपी अमृत प्राप्त नहीं होता वह तो मन दी वश में कर लेने पर ही मिल सकता
मन पर संयम करने पर ही माना सच्चे आनन्द की अनुभूति कर सकता है। अन्यथा उन्हें सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य और उससे भी अधिक मिल जाने पर भी शांति नहीं मिल सकती। राज्य की सीमा कहाँ है?
मिथिला नरेश महाराजा जनक के राज्य में एक ब्राह्मण रहता था। उससे एक बार कोई बड़ा भारी अपराध हो गया।
ब्राह्मण को दरखार में उपस्थित किया गया। जनक उसके अपराध से बहुत कुपित हुए और उसे अपने राज्य की समा से बाहर निकल जाने का आदेश
दिया।
ब्राह्मण ने महाराज के आदेश को शिरोधार्य किया पर हाथ जोड़कर पूछा - "महाराज! मैं इसी वक्त आपके राज्य में बाहर निकल जाता हूँ, किन्तु कृपया मुझे बता दीजिये कि आपके राज्य की सीमा कहाँ है?"
ब्राह्मण के प्रश्न से विद्वान एवं आम-ज्ञानी जनक के मन को एक गहरा झटका लगा। वे सोचने लगे इस पृथ्वी पर ! तो अनेक शक्तिशाली राजा राज्य कर रहे हैं। अत: मुझे तो अपना राज्य मिथिला ही लगता है। पर फिर ख्याल आया कि राज्य मेरा कहाँ से आया ? क्या यह मेरे साथ चलेगा?
ज्यों-ज्यों जनक की विचार-धारा आ बढ़ी उनके अधिकार की सीमा संकुचित होती चली गई पहले प्रजा पर, फिर सेवकों पर और फिर अपने अंत:पुर पर ही