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आनन्द प्रवचन : भाग १ उन्हें अपना अधिकार लगा। पर जब जनक चिंतन की और भी गहराई में उतरे तो उन्हें लगा कि इन पर भी मेरा अधिकार कहाँ से आया? यह सब नाशवान हैं, मेरा अधिकार तो केवल मेरी आत्मा पर ही है।
ऐसा विचार आने पर वे बोले - "बन्धु, मेरे राज्य की सीमा कहीं नहीं है, संसार की किसी भी वस्तु पर मेश अधिक नहीं है। आप जहाँ चाहे, प्रसन्नतापूर्वक रहिये।"
यह होता है मन का संयम। मन गर इस प्रकार का संयम होने पर ही मुक्ति का अभिलाषी पुरुष दृढ़ श्रध्दा सहित जितेन्द्र की सची पूजा कर सकता है तथा देवताओं को भी अपने चरणों पर झुका सकता है।
बंधुओं, आज आपने मनुष्य-जन्म देव पहले फल जिनेन्द्र-पूजा के विषय में ज्ञान किया। बाकी पाँच फलों के विषय में हम सुविधानुसार अगली बार विवेचन करेंगे।