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________________ • [२३१] आनन्द प्रवचन : भाग १ कितना त्याग करना पड़ता है? कितने बंधनों में बँधना पड़ता है? मन को कितना संयमित करना पड़ता है? इसका अन्दाज लगाने से नहीं लगता। फिर भी पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने संक्षेप में समझाने का प्रयास किया है। कहा है - वही बड़भागी अर्थात् बड़े भाग्यवान मन्त हैं जो पाँच दुष्कर महाव्रतों का पालन करते हैं, सत्ताईस गुणों से युक्त होते हैं तथा जगत के भोगों को दुःख का मूल मानकर त्याग देते हैं। जिनागमों को निस्तर पढ़ते हैं, उन्हें समझते हैं तथा उन पर गहन चिंतन करते हुए आत्म-स्वरूप में रमण करने का प्रयत्न करते हैं। सचे संत अपने नश्वर शरीर के मB का सर्वथा त्याग करके बारह प्रकार की तपस्या में संलग्न रहते हैं तथा नाना प्रकार के भयंकर कष्ट सहन करके भी मुक्ति-प्राप्ति के प्रयत्न को नहीं छोड़ते। कवि ने कहा है - ऐसे ही बड़भागे साधु आत्मा पर चढ़े हुए कर्म-रूपी कलंकों का समूल नाश करके मोक्ष को प्राप्त होते है। तो मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि ऐसे ज्ञानी, त्यागी, आत्मा के सही स्वरूप को जानने वाले और भगवान के सवे उपासक ही अन्य प्राणियों के लिये वंदनीय बनते हैं। श्लोक में अपनी बात बताई गई है कि जो भगवान की स्तुति करता है, उसकी स्तुति इंद्र-लोक में होती है। दृढदती अरणक श्रावक की स्तुति इन्द्र महाराज ने की थी। कामदेव श्रावक की प्रशंसा भी इन्द्र को करनी पड़ी। तो जो अपने धर्म पर दृढ़ रहता है तथा भगवान की स्तोते और पूजा करता है, उसके गुण-गान देवलोक में भी होते हैं। इन सबके अलावा भगवान का ध्यान, उनके विषय में चिन्तन और उनकी आन्तरिक पूजा जो व्यक्ति करता है, उसका ध्यान योगी भी करते हैं। योगी भी उनकी प्रशंसा और स्तुति करते नहीं थकते! मतलब यही है कि जिनेन्द्र भगायन की भक्ति करना मनुष्य जन्म रूपी वृक्ष का पहला फल है। भक्ति के बिना प्रात्म-रूप परमात्मा की प्राप्ति संभव नहीं है। भक्ति को चाहे आप भक्ति कहलें अदा कहलें, यकीन कहलें या अंग्रेजी में 'बिलीव' कहें। बात एक ही है। विश्वास ही मुमुक्षु को अपनी मंजिल तक पहुँचने का मार्ग बताता है। एक पाश्चात्य विद्वान ने तो कहा है : "Faith is the opot of all blessings." विश्वास सारे वरदानों का आधार है। तात्पर्य यही है जब आत्मा में ख श्रध्दा पैदा होती है तभी भगवान की
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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