________________
मंगलमय धर्म-दीप
[१२]
वास्तव में ही काल बली है, यह वाक्य तो हम जीवन में असंख्य बार दोहराते हैं पर इस बात पर कहाँ विश्वास करते हैं कि हमारी आत्मा उससे भी अधिक बलशाली है और अगर हम अपने मनोयोग को दृढतर बना लें तो अत्यल्प काल में ही काल को सदा के लिये जीत सकते हैं। वीतराग प्रभु का कथन भी
मनोयोगो बलीयांश्च, भाषितं भगकान्मते।
यः सप्तमी क्षणार्थेन, नयेद्वा मोक्षमेा च॥
सर्वज्ञ प्रभु के मत में मनोयोग कर इतना बलशाली बताया गया है कि वह आधे क्षण में जहां सातवें नरक में पहुँच सकता है, वह आधे क्षण में ही समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष में भी पहुँच देता है।
इसलिये बन्धुओ, हमें काल की दुातई देना छोडकर तथा इसकी शक्ति से निराश होकर निष्ठापूर्वक धर्माचरण करते हुए अनन्तसुख की प्राप्ति का प्रयत्न करना है। पर यह तभी होगा जब कि हम प्रमा, का त्याग करेंगे और तत्पश्चात सच्चे धर्म की परख करके उसको जीवन में उतनगे। प्रमाद और अज्ञान के अंधकार में डूबे रहने से तो कुछ भी हासिल होना संभव नहीं है। हमें मार्ग खोजना है और वह मुक्ति का मार्ग केवल धर्म-रूपी दीपक की अमर ज्योति में ही मिल सकेगा।
आत्म कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को अनन्त सुख और शाश्वत शांति की प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिये और ये दोनों धर्माचरण में ही निहित हैं। अन्यत्र कहीं इसकी खोज करना मृग-मरीचिका में फंसक भटकते रहना मात्र ही है।
सांसरिक भोगों का कही अंत नहीं है। विचार करने की बात है कि क्या उन्हें भोगने से तृप्ति होती है? कभी नहीं! जिस प्रकार अग्नि में निरंतर आहुति डालते रहने पर भी वह शांत नहीं होती उलटे भड़कती जाती है, उसी प्रकार अनन्त भोग सामग्री मिलने पर भी मनुष्य की भोग-लालसा सदा अतृप्त ही बनी रहती है। धन की लालसा अथवा स्त्री, पुत्र , भाई, पिता आदि सांसारिक सम्बन्धियों के प्रति मोह मनुष्य को अंधा बना देता है। और उसकी संसार मुक्त होने की कामना पर पानी फेर देता है। मोहकर्म की भयानकता बताते हुए किसी कविने कहा
मोह-वह्निमपाकतु स्वकर्तुं संयमशिष्यम्।
छेनुं रागद्रुमोद्यानं, समत्वमवलम्ब्यताम् ।। मोह अग्नि के समान है। अग्नि का संताप तो देह पर अल्पकालीन असर डालता है, किन्तु मोह-जनित संताप आत्मा को तपाता हुआ चिरकाल पर्यंत भवभ्रमण कराता है। आठ कर्मों में मोहकर्म की स्थिोते ही सबसे अधिक सत्तर कोटा-कोटी कर देता है। इसके ताप से समग्र संसार गैड़ित है किन्तु फिर भी इसकी मोहिनी शक्ति से जीव अपना पिण्ड नहीं छुड़ा पाते।