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________________ • [११] आनन्द प्रवचन भाग १ कहने का अभिप्राय यही है कि जो व्यक्ति धर्म को अपने जीवन में नहीं उतारता तथा उसकी रक्षा नहीं करता उसका जीवन अकारथ ही चला जाता है। महाभारत में वेदव्यास जी ने भी कहा भी है - "धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः । " अर्थात् यदि हम धर्म को सुरक्षित रखेंगे तो वह हमारी रक्षा करेगा। और अगर हम धर्म को खत्म कर देंगे तो वह हमारा अस्तित्व नष्ट कर देगा। - इसीलिये मानव को चाहिए कि कह धर्म के रहस्य को परखे, उसे जीवन में उतारे और उसकी रक्षा करने का सतत प्रयत्न करे। दुर्लभ मानव जीवन और धर्म संसार का कौनसा व्यक्ति नहीं जानता कि मानव जीवन अत्यन्त दुर्लभ है और इसके अमूल्य क्षण एक-एक करके व्यतीत हो जायेंगे कोई भी मनुष्य चाहे वह विद्वान हो या मूर्ख, धनवान हो या निर्धन, वीर हो या कायर अथवा बलवान हो या निर्बल सदा काल के लिए जीवित नहीं कह सकता। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को विचार करना चाहिये कि वह अपने इस लघु और नश्वर जीवन का सदुपयोग कैसे कई ? अगर व्यक्ति समझदार और विवेकवान है तो वह सहज ही जान लेता है वि जीवन का सदुपयोग बड़ा परिवार होने और उसके ममत्व में गृद्ध होने से नहीं चिता, धन का अम्बार लगाकर भोग-विलास के अगणित साधन जुटा लेने से नहीं ता अथवा झूठी प्रतिष्ठा और कीर्ति बढ़ा लेने से भी नहीं होता है। प्रश्न उठता है कि तब फिर फोवन का सदुपयोग कैसे हो सकता है? इस नश्वर शरीर से क्या लाभ लिया जा सकता है। इस विषय में पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज कहते हैं - आयु असार बिचार हिये थिंर धंजुली को नहिं रेवत पानी । देह उदारिक नाश हुवे निज मा ममत्व करे अभिमानी । काल बली सिर छाय रह्यो किका पूरि भये लहि जावत तानी । सुकृत साध आराध सुधर्म अमीरिख मर्म पिछान सुज्ञानी ॥ कितना सुंदर उद्बोधन है! कहा- अरे सुज्ञानी जीव ! जिस प्रकार अंजुलि में भरा हुआ पानी एक-एक बूँद करके नीचे गिर जाता है, उसी प्रकार इस जीवन का एक-एक क्षण व्यतीत हो जाता है। अतः इस नश्वर देह को अपनी मानकर इसका अभिमान मत कर और न ही इसमें ममव रख।' यह मत भूल की काल तेरे मस्तक पर मंडरा रहा है और समय होते यह तुझे लेकर चलता बनेगा। इसलिए सच्चे धर्म का मर्म समझ और उसकी आराधना करके आत्म-कल्याण का प्रयत्न कर।'
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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