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________________ [१०] • मंगलमय धर्म-दीप अब तक धर्म की हजारों परिभाषाएँ दी जा चुकी हैं। किंतु अगर मुक्ति के इच्छुक व्यक्ति को धर्म का वास्तविक स्वरूप समझना है तो उसे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य की एक छोटी सी परिभाषा पर ध्यान देना चाहिये। उन्होंने कहा है - "वत्थुसहावो अम्मो।" वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म है। जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता, अग्नि का स्वभाव उष्णता, शक्कर का स्वभाव मीठापन और नमक का स्वभाा खारापन है उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव ज्ञान, दर्शन एवं चारित्रमय है। सत्, चित् एवं आनंदमय है, आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव में रहे तो निश्चय ही कहा जा सकता है वह धर्ममय है। अभी मैंने आप लोगों को अहिंसा, संयम और तप के विषय में काफी बताया है। ये तीनों आत्मा के स्वाभाविक और निजी गुण हैं। इसीलिए इन्हे हमारे शास्त्रकारों ने धर्म कहा है। गंभीरतापूर्वक विचार करने पर यह भली भाँति माना जा सकता है कि आत्मा को अपने सहज स्वभाव की प्राप्ति केवल अहिंसा, संयम और तप में स्थित रहकर ही हो सकती है। अहिंसा, संयम र तपरूप यह त्रिवेणी ही दूसरे शब्दों में मंगलमय धर्म कहलाती है, जिसकी आराधना करके किसी देश का, किसी भी जाति का और किसी भी संप्रदाय का व्यक्ति अपनी आत्मा को कर्म-मुक्त कर परमात्मा बन सकता है। किन्तु जो व्यक्ति अपने जीवन में धर्म को स्थान नहीं देते तथा उसकी उपेक्षा करते हैं, उसके लिए समझना चाहिये कि वे अपने अमूल्य मानव भव को निरर्थक कर रहे हैं। क्योंकि इस दुर्लभ मानव जीवन की प्राप्ति महान पुण्यों के उदय से होती है। संसार की असंख्य योनियों में भटकने के पश्चात् मनुष्य योनि की प्राप्ति करना कितना कठिन है? पर इसे पाकर भी जो व्यक्ति अपने भविष्य को उज्ज्वल नहीं बनाते, मानव जीवन का जो चरम लक्ष्य है-अक्षय और अव्याबाध सुख की प्राप्ति करना उसके लिए भी प्रयल नहीं करते तो उनका मनुष्य जन्म प्राप्त करना न करना समान ही है। किसी ने कितना सत्य कहा है - आनन्दरूपो निजबोध रूणे, दिव्यस्वरूपो बहुमानरूप:। तपः समाधौ कलितो नाघेन, वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम्॥ - जिस मनुष्य ने तपस्या करके तथा समाधिधारण करके अपनी आत्मा के अनन्त आनन्दमय स्वरूप को नहीं समझा, जिसने अपने चेतनस्वरूप को नहीं जाना, नहीं पहचाना तथा उसे प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ चला गया।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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