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________________ • [१३] आनन्द प्रवचन : भाग १ किन्तु अगर मानव को इस संसार-चक्र से छूटना है तो उसे अपना विवेक जगाना होगा। संसार के प्रति रही हुई आनी आसक्ति का त्याग करना होगा। उसे सोचना ही पड़ेगा कि यह जीवन धर्म-साधना के लिए है न कि संसार में लिप्त रहकर आत्मनाश के लिए। संसार में आसक्त रहने से आत्मा का कल्याण होना भी कभी संभव नहीं है। इसलिए महापुरुष और संतजन आंतरिक और बाह्य परिग्रह का त्याग करके धर्म का आश्रय लेते हैं। वे स्वयं भी संसार से विरक्त होकर आत्म-साधना करते हैं। और संसार में ग़द्ध अन्य प्राणियों को भी उद्बोधन देते हुए कहते हैं - ढील करे मत तु छिन की करलो झट सुकृत लाभ कमाई। बैठी एकान्त करी मन ठाम जपा जिनराज सुध्यान लगाई। दान, दया, संजम मारग श्री गुरुसेव करो चित्त लाई। अमृत चित्त अलेप रखो नर देह धरे को यही फल भाई॥ महापुरुष श्री अमीऋषि जी महाराज की कितनी भाव-भरी चेतावनी है? कहा है - हे जीव! अगर तुझे अपनी नर-देह अर्थात् मानव-पर्याय को सार्थक करना है तो क्षण का भी प्रमाद किये बिना सुकृत कर। अपने मन को स्थिर रखकर एकान्त में बैठ और वीतराग का प्रमरण कर। सदा अपने गुरु के उपदेशों को जीवन में उतार और दान, दया, तप एवं संयमरूप धर्म की आराधना कर। तभी तुझे नर देह धारण करने का कुछ फल मिन सकेगा। प्रत्येक मुमुक्षु को इससे शिक्षा लेकर धर्म को उसके सच्चे रूप में अपनाना चाहिये तथा अपनी दृढ़ साधना से ऐसा पुरुषार्थ जगाना चाहिये कि समस्त कर्मों के दृढ बंधन भी तड़ातड टूट जायें। अस्तु, जीवन अमूल्य और दुर्लभ है। अज्ञान और प्रमाद में पड़े रहकर इसकी उपेक्षा करना इसे मिट्टी के मोल - गंवा देने के समान है। अत: प्रत्येक आत्म-कल्याण के इच्छुक मानव को मंगलमा धर्म का आधार दृढता से ग्रहण करना चाहिये। धर्म की अमर ज्योति ही इस संसाररूपी अरण्य में भटकते हुए जीव को सही मार्ग बता सकती है, तथा उसे अनन्त सुख और शाश्वत शांति रूपी अमर-पथ की प्राप्ति करा सकती है। धर्म की शरण में जाने पर ही आत्मा का कल्याण और मंगल हो सकेगा।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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