SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • (२२३] आनन्द प्रवचन : भाग १ उसे सेठ के यहाँ गुमाश्ता बनना पड़ा है। कहा भी है : "वश्यतां नयति पूर्वभवात्तं, पुण्यमेरु भुवनानि किमन्यत्।" - पुण्य के विषय में अधिक क्या कहें? पूर्व-जन्म के संचित पुण्य ही तीन लोक को वशवर्ती अथवा आज्ञानुयायी बना देते हैं। इस पुण्य के प्रभाव से ही मनुष्य-माष्य की स्थिति में अन्तर हो जाता है। एक राजा बन जाता है और दूसरा भिवारी। तथा केवल मर्त्य-लोक में ही ऐसा नहीं होता, बारहवें देवलोक तक पुण्य 7 यही करिश्मा चलता है। देवों में भी छोटे-बड़े अपने पुण्य के प्रभाव से बनते हैं। पर बारहवें देवलोक से उपर सभी अहमिन्द्र हैं, वहाँ चाकर-ठाकुर कोई नहीं। मानव जीवन की श्रेष्ठता अभी मैंने बताया कि उत्तम करनी करने से पुण्योपार्जन होता है तथा पुण्य के द्वारा इस लोक तथा परलोक में सुख मित्रता है। करनी के अनुसार ही मानव देवगति में जा सकता है, इन्द्र बन सकता है तथा तीर्थंकर नाम-कर्म का उपार्जन भी कर सकता है। पर ऐसी करनी कहाँ पर की जा सकती है? केवल इस मानव जन्म में ही। उत्तम करनी के लिये म्मुष्य-जन्म ही सर्वश्रेष्ठ जन्म है। यही एक क्षेत्र ऐसा है, जहाँ से मानव जैसी करनी करे वैसा फल पा सकता है तथा जहाँ चाहे जा सकता है। पर करनी-करनी में भी बड़ा भारी अन्तर होता है। केवल कुछ न कुछ करने से ही लाभ नहीं होता। करनी अथवा कर्म ऐसे उत्तम किये जाने चाहिये, जिनसे उत्तम फल भी प्राप्त हो। महात्मा कबीर ने कर्म-कर्म में अन्तर बता हुए कहा है : एक कर्म है बोना, उपजै बीज बहून ॥ एक कर्म है मूंजना, उदय न अंकुर मूत। कर्म दोनों ही है, बोना और मूंजना। दोनों में ही परिश्रम पड़ता है, किन्तु उनके फलों में कितना अन्तर है? बीज बंति पर फसल के रूप में अनेकगुणा अन्न प्राप्त होता है पर मूंजने पर कुछ भी नहीं हारिफर होता। इसलिये, कर्म ऐसे ही करने चाहिये जिनका शुभफल प्राप्त हो सके। व्यर्थ कर्म या कुकर्म करने से आत्मा की हानि होती है, लाभ कुछ भी नहीं। कर्म तो चोर, डाकू तथा जुआरी व्यक्ति भी की हैं पर उसका क्या परिणाम होता होगा इसका अन्दाज आप लगा ही सकते हैं। अपना स्वार्थ -साधन करने के लिये औरों को हानि पहुँचाने वाले व्यक्ति मनुष्य होकर भी मनुष्य नहीं कहला सकते, ऐसे व्यक्तियों के लिये कहा जाता है : 'तेऽमी मानुषराक्षसा: परहित स्वार्थाय निघ्नन्ति ये।"
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy