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मानव जीवन की महत्ता
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जो अपनी हित-साधना के लिये र के हित का विनाश करते हैं, वे मनुष्य के रूप में राक्षस ही होते हैं।
इसीलिये महापुरुष तथा संत-महाला बार-बार कहते हैं - मनुष्य-जन्म का लाभ उठाओ! यह दुर्लभ देह बार-बार नहीं मिलती। अगर यह श्रेष्ठ भव पाकर भी तुमने धर्म के मर्म को नहीं समझा, जिनवाणी को हृदयंगम नहीं किया तथा शुभ-कार्य करके पुण्योपार्जन नहीं कर सके तो यह देवताओं को भी दुर्लभ मानव पर्याय निरर्थक चली जाएगी।
पंडित पूज्यपाद श्री अमीऋषिजी महाराज ने भी उस मनुष्य का जन्म व्यर्थ बताया है जिसने :
धरम न जाण्यो सत करम न काण्यो,
कछु मरम न जाण्यो मत जैन जिनवाणी को दानहू न दीनो ना शीयल चित्त भीनो,
तप विधिसुन कीनं नहीं सेवे गुरु ज्ञानी को। कीनो नाही तत्व अनतत्व को वेचार भूरि,
भावना न रुचि चिरा नेक अभिमानी को। जिस व्यक्ति ने धर्म को नहीं समझा, सत्कर्म क्या होते हैं उन्हें नहीं जाना, तथा जिनधर्म और जिनवाणी के अर्थ को जानने का प्रयत्न नहीं किया और न ही कभी दान दिया, शील का पालन लिया तप किया, और अगम्यज्ञान के धारक गुरु की श्रद्धा एवं विधिपूर्वक सेवा की। इतना ही नहीं, जिसने तत्व-ज्ञान का सही ज्ञान भी अपने अहं के कारण नहीं किया और कभी भी उत्तम भावनाओं को हृदय में स्थान नहीं दिया, उसके लिये कवि ने आगे कहा है -
कहे अमीरिख यथा मालती उमण्य मध्य,
___ त्यों ही गयो आफल जन्म तिह प्राणी को। , जिस प्रकार शून्य अरण्य में मालती के फूल खिलें, पर कोई भी मानव उनके सौन्दर्य और सौरम का उपयोग न करे, तथा उनका वहाँ पर खिलना व्यर्थ हो जाए, उसी प्रकार इस संसार में प्राणी मानव जन्म प्राप्त करले किन्तु उससे कोई लाभ न उठाए तो 'मालती अरण्यवत', उसका अनेकानेक लाभ प्रदान करने वाला यह शरीर निष्फल माना गया समझना काहिये।
किन्तु प्राणी को यह नहीं भूलना चाहिये कि मानव-जन्म की श्रेष्ठता किसमें है। धन की दृष्टि से मनुष्य-जन्म श्रेष्ठ : नहीं है। धन देवताओं के पास कितना होता है, यह आपके सुनने में आया ही होगा? समूचे भरत-क्षेत्र का धन एक तरफ और वाणव्यन्तर देवता की 'मुंजड़ी' एक तरफ। अत: धन की दृष्टि से अगर मानव-जीवन की श्रेष्ठता मानी जाती तो देवताओं का जीवन श्रेष्ठ कहलाता।