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मानव जीवन की महत्ता
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(मानव जीवन की महत्ता)
धर्मप्रेमी बन्धुओं, माताओं एवं बहनों!
शास्त्रों में वर्णन आता है कि देवता अपना दूसरा शरीर बना सकते हैं, जो वैक्रिय शरीर कहलाता है। तभी कहा है -
'देवाणं वाच्छाणं।' - देवताओं में वह शक्ति है, जिसके द्वारा वे अपने शरीर को इच्छित रूप में बदल सकते हैं।
श्री 'रायप्रसेनी सूत्र' में सूर्याभ देवता के हुक्म से उनके आभियोगिक देवता ईशान दिशा की तरफ जाकर अपने घरीर का रूपान्तर करते हैं। ऐसा वे क्यों करते हैं? क्योंकि उन्हें आमलकप्पा नगर में विराजित भगवान महावीर प्रभु की सेवा में पहुँचना है।
शंका होती है कि देवता अपने स्वाभाविक रूप में क्यों नहीं आते? इसका उत्तर यही है कि अगर देव अपने मूल-रूप में यहां आ जाएँ तो उनके शरीर के तेज को सहन करने की ताकत म्मुष्य में नहीं है। मनुष्य की आंखों में वह
शक्ति नहीं है कि वह देवताओं के तेक को सहन कर सके। इसीलिये देव मनुष्य -लोक में रूप बदल कर आते हैं। देवत्व में भी भिन्नता
हमें लगता है कि वे देवता कैने बने ? देवता बनने के लिये उन्होंने उत्तम करनी की। हाँ इतनी बात अवश्य है के आभियोगिक देवताओं की कस्नी में कुछ कसर रही। अन्यथा वे भी इन्द्र देवक्त बनते। इन्द्रदेव की करनी उनकी अपेक्षा उत्कृष्ट थी।
जैसे आपके यहाँ एक सेठ है, और दूसरा गुमाश्ता है। क्या फर्क है दोनों में? क्या सेठ के दो आँखों की जगह चार आखें हैं? या दो हाथों के स्थान पर चार हाथ हैं? नहीं दोनों का शरीर समान है, दोनों ही मनुष्य हैं, दोनों के अंगोपांग और उनकी शक्ति एक सी है। फर्क है केवल की हुई करनी का। या दूसरे शब्दों में पुण्यदानी का। सेठ के पास पुण्यवानी अधिक है अत: उसके वहाँ ढेरों नौकर-चाकर और गुमाश्ते हैं। पर गुमाश्ते की पुण्यवानी में कसर रही है अत: