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आनन्द प्रवचन : भाग १
• [२१५]
लोग यश प्रदान करते हैं।
संत महात्मा के पास जाओ
इंग्लैण्ड का बादशाह जेम्स अपना कोष भरने था। वह जानता था कि उपाधि से कोई महना
के लिए पदवियाँ बेचा करता बनता नहीं, महान बनने के लिये तो सद्गुण चाहिये। किन्तु लोगों की अहंकार वृत्ति का पोषण करने के लिये पदवियाँ दिया करता था।
एक बार एक व्यक्ति राजा जेम्स के कबार में आया। राजा ने उससे पूछा "तुम्हें कौनसी पदवी चाहिये ?"
"मुझे सज्जन बना दीजिए !" व्यक्ति ने उत्तर दिया ।
"भाई ! मैं जेम्स यह सुनकर परेशान हो गया और धीरे से बोला तुम्हें लॉर्ड, ड्यूक आदि तो बना सकता हूँ लेकिन सज्जन नहीं बना सकता। अगर तुम्हे सज्जन बनना है तो किन्हीं सन्त महात्मा की संगति में जाओ।"
बंधुओ, आप समझ गये होंगे कि सजा बनना कितना कठिन है और सज्जन कैसे बना जाता है। केवल सन्तों की सेवा-भक्ति और उनके सदुपदेशों को अमल में लाने से ही मानव श्रेष्ठ बन सकता है तथा उसकी आत्मा उज्ज्वल हो सकती है । व्यासदेव ने भी सत्संगति का बड़ा भारी महत्व बताया है। कहा है :
तुलायाम लवेनापि न स्वर्ग नापुनर्भवम् । भगवत्संगिसंगस्य, मर्त्यानां किमुताशिषः ॥
यदि भगवान में आसक्त रहने वाले लोगों का क्षणभर भी संग प्राप्त हो, तो उससे स्वर्ग और मोक्ष तक की तुलना नहीं कर सकते, फिर अन्य अभिलषित पदार्थों की तो बात ही क्या है ?
तो बंधुओ, इसीलिये कवि ने कहा 'तू गुरु सेवा की गंगा में अपने पाप - मल को धोकर निर्मल हो जा ! अनन्त काल से तेरी आत्मा पर कर्मों की परतें चढ़ती जा रही हैं और कर्म भार से वह बहुत ही बोझिल हो गई हैं। अतः इस सुयोग को खो मत, और अपना बोझा हलका कर ले।'
आगे और भी कहा गया
ज्ञान रूप दर्पण के अन्दर किन आत्म को जो जा। बार-बार सत्गुरु समझावे, एंव दोष सब
जा ॥
अपनी आत्मा को देख !
तथा चेहरे के सौन्दर्य
कवि की चेतावनी है 'सदा ज्ञान रूपी आइने में तू जिस प्रकार काँच मे अपना चेहरा प्रतिदिन देखता है को निखारने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार ज्ञान रूपी दर्पण में अपनी आत्मा को देख, और देख-देखकर उसके सहज और स्वभाविक रूप को निखारने की कोशिश