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________________ • अमरता की ओर! [२१६] कर। 'प्रतिदिन ज्ञान-दर्पण में अपनी आत्मा को देखकर विचार कर कि आज मैंने कितना क्रोध किया? कितना अहंकार मन में आया? कितने व्यक्थियों को धोखा दिया? कितने का मन दुखाया और इस प्रका कितना पापोपार्जन किया। संत-महात्मा तुझे बार-बार यही उपदेश देते हैं कि इस दुर्लभ मानव-जीवन को व्यर्थ मत खो। यह अपूर्व अवसर बूक गया तो पुन: प्राप्त होना कठिन है।' पूज्यपाद अमीऋषि जी महाराज ने भी यही सखि दी है: सुनहु सुजान प्यारे पाप के समय सार, ___ भूलि हूँ न ऐसो का औसर बिताइये। परम पुनीत जिनमत सुखधामालही, हरख सहित ज्ञान-का में नहाइये। कहते हैं - 'हे सुजान ! बड़ी कठिनाई से यह सुअवसर मिला है, अत: इसे भूलकर भी व्यर्थ मत जाने दो। ताहें परम पवित्र और सुख का धाम जैन धर्म प्राप्त हुआ है अत: असीम उत्साह और हर्षपूर्वक ज्ञान-गंगा में गोते लगाओ और अपने पापों का प्रक्षालन करो।' आगे जिनवाणी का महत्व बताते हुए कहा है :सार जिनवाणी सुखरानी हितकारी मानी, जानी निजरूप पर मंग विसराइए। तिरने को दाव नाव सकरी सामन यह, कहै अमीरिख पूरे फुल्य जोग पाइए। अर्थात् ..... जिनवाणी आत्मा का अनन्त सुख प्रदान करने वाली है और उसके लिये अत्यन्त हितकर है। उस जिनवाणी यानि जिन-वचनों के ऊपर विश्वास करके अपने शुद्ध-स्वरूप को समझकर प-पदार्थों पर से महत्त्व हटाना चाहिये तथा भली भाँति समझ लेना चाहिये कि यह मानव पर्याय भव-सागर को तैरने के लिये नाव के समान है तथा महान् पुण्यों वेत योग से प्राप्त हुई है अत: कहीं व्यर्थ न चली जाए। महापुरुष इसी प्रकार अज्ञानी प्राणियों को बार-बार बोध देते हैं तथा अपने अवगुणों को त्यागने का उपदेश प्रदान करते हैं। वे कहते हैं- जब तक तुम अपने दुर्गुणों का त्याग नहीं करोगे तथा सम्यक्झान के द्वारा अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप को समझकर अन्य समस्त पर-पदार्थों पर से आसक्ति नहीं हटाओगे, तब तक तुम्हारी आत्मा का उद्धार नहीं हो सकेगा। आत्मोद्धार के लिये और क्या करना चाहिये? मुक्ति का मेवा चले तो, ममता दही बिलो जा। जो अब पौका चूक गया तो,हले नर्क में रो जा॥
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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