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अमरता की ओर !
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औरों को उपदेश देने में ही अपनी विद्वत्ता मानना तथा अपने आपको पंडित समझ लेना विवेकी बन जाने का प्रमाण नहीं है। आत्मा का कल्याण तभी होता है, जबकि दूसरों को उपदेश देने के बघाय उन उपदेशों को स्वयं समझा जाय और उसे जीवन में उतारा जाय। औरों को सुधारने से पहले अपना सुधार करना आवश्यक है अन्यथा वही हाल होगा कि मानव स्वयं तो अपने लोटे में जल छानकर पी नहीं सकता पर पूरे तालाब का पानी छानकर लोगों को पिलाने का प्रयत्न
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करे।
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जो जल अपने काम में आए, महले तो उसे ही छानना है न! सम्पूर्ण तालाब का पानी कैसे छाना जाएगा? वह प्रयत्न तो ऐसा होगा, जैसे एक तिनके के सहारे सागर को तैरने का प्रयत्न करना। इसलिये सर्व प्रथम मानव को अपनी स्थिति संभालना आवश्यक है ! अपने आपको सम्हाल लेने और शुध्द बना लेने के पश्चात् ही उसे अपनी दृष्टि अन्य व्यक्तियों को ओर उठाना चाहिये।
क्योंकि जब मनुष्य अपनी अन्ताप्रत्मा को सम्हाल लेगा, उसे निर्मल बना लेगा तभी उसकी विवेक शक्ति बलवान बांगी और वह औरों पर भी अपना प्रभाव डाल सकेगा। आत्मा को निर्मल बनाने का मार्ग भी भजन में आगे बताया है :
गुरू सेवा की गंगा इसमें पाप मैल को धो जा।
भारी हो रहा बहुत दिनों से, हलका करले बोझा ॥
यह जीवात्मा अविवेक की स्थिति में रहने के कारण तथा शास्त्र के विरुध्द आचरण करते रहने के कारण मलिन बन गया है। अविवेक के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ तथा राग-द्वेष आदि की मंगी आत्मा पर जम गई है, अतः जिस प्रकार मलिन वस्त्र को आप साफ जल से शुध्द करते हैं, उसी प्रकार आत्मा को भी शुध्द करने का प्रयत्न करें। फा समस्या यह है, कि आत्मा को किस प्रकार शुध्द किया जाय ?
आत्मा के पाप-मल
पास जा और अपने
भजन में यही उपाय कवि ने बताया है। कहा है को धोने के लिये तू गुरु सेवा और ससंग रूपी गंगा के समस्त पाप मल को सत्संगति की गंगा में जाकर धोले कबीर जी का कथन है कि जिस प्रकार गंदा पानी भी गंगा में पहुँचकर निर्मल बन जाता है, उसी प्रकार तेरी मलिन से मलिन आत्मा भी सत्संग रूपी गंगा में पहुँचकर निर्मल हो जाएगी
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कबिरा खाई काट की, पानी पिबै न कोय।
जाय मिले जब गंग में, सब गंगोदक होय ।।
संक्षेप में सत्संग का
बड़ा भारी महत्व और लाभ है। सत्संगति बुद्धि की जड़ता को नष्ट करती है, विवेक को जागृत करती है तथा सज्जनों की संगति के कारण