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अमरता की ओर !
कहे अमीरख मन राखरे भरोसे 1 दृढ़,
ऐसे ऐसे तारे फिर तोह क्यों न तारे हैं।
प्रौढकवि पूज्यपाद श्री अमीऋषि को महाराज दृढ़ विश्वास और आस्थापूर्वक चेतन से कहते हैं कि जब शासनस्वामी भगवान महावीर ने कटुवचन बोलने वाले गौतम को, अविनीत और निन्दक गोशालक को तथा महाविषधर चंडकौशिक आदि को सम्यक्त्व प्रदान कर निहाल कर दिया, तथा चंदना जैसी महासतियों के समस्त संकटों को दूर किया, ऐसे महान अपराधियों के अपराधों पर ध्यान न देने वाले वीर प्रभु तुझे क्यों नहीं तारेंगे। अर्थात् अवश्य तारेंगे और तू कर्म-मुक्त होकर शिवपुर का अधिकारी बनेगा।
है।
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कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक मुमुक्षु के हृदय में सम्यक् श्रध्दा या सम्यक्दर्शन दृढ़ होना चाहिए तथा ऐसा दृढ़ सम्यक्त्व जिस आत्मा में होता है वह आत्मा दर्शन आत्मा कहलाती है।
७. चारित्र-आत्मा
चारित्र कहलाता है - श्रावक धर्म, साधु धर्म तथा व्रत नियमादि अंगीकार करना । जो व्यक्ति अपनी अन्तरात्मा से इन्हें ग्रहण करता है, उसकी आत्मा चारित्र आत्मा कहलाती है।
चारित्र जीवन का अमूल्य धन है। तथा धर्म का मूल है। कहा भी है
"क्रियाहीने नः धर्मः स्यात् । "
व्रत-नियम, त्याग-प्रत्याख्यान आदि रूप क्रियाओं के अभाव में धर्मोत्पत्ति नहीं होती है। क्योंकि :
"आचारः प्रथमो धर्मो नृणां श्रेयस्करो महान् ।”
सात्विक आचार ही पहला धर्म है और यही मनुष्यों के लिए महान् कल्याणकारी
चारित्र का जीवन में बड़ा महत्व है। यहाँ तक कि मनुष्य चाहे जितना भी विद्वान और ज्ञानदान् क्यों न बन स्वाय, अगर उसमें चारित्र गुण नहीं है तो उसकी विद्वत्ता और उसका अगाध ज्ञान भी निरर्थक हो जाता है। कहा गया है
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"क्रियाविरहितं हन्त ! ज्ञानमात्रमनर्थकम्।"
ज्ञान-सार
दुःख के साथ कहना पड़ता है कि उस ज्ञान को निरर्थक ही समझो,