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आनन्द प्रवचन : भाग १
शास्त्रों में वर्णित हैं।
जिन व्यक्तियों को 'पचीस बोल' का थोकड़ा आता है, वे आठों प्रकार की आत्माओं को समझते होंगे वे इस क्रम से हैं :- १) द्रव्य-आत्मा २) कषाय-आत्मा ३) योग-आत्मा ४) उपयोग-आत्मा ५) ज्ञान-आत्मा ६) दर्शन-आत्मा ७) चारित्र -आत्मा ८) वीर्य-आत्मा। १. द्रव्य-आत्मा
द्रव्य-आत्मा प्रत्येक में है। जो जीव है उन सब में द्रव्य आत्मा है। मैंने आत्मा की व्याख्या तो की, पर जीव की व्याख्या क्या है? जो भूतकाल में जीता था, वर्तमान में जीता है और भविष्य में जपिगा, उसे जीव कहते हैं। जीव का कभी नाश नहीं होता। कर्मों का क्षय हो जाने पर सिद्धगति में जाएगा तब भी जीव का जीव रहेगा। उसका कर्मों से सम्बन्ध लय तक है? जब तक वह चौरासी-लक्ष योनियों में भटकता है तभी तक। और तब तक ही वह द्रव्य आत्मा कहलाता
२. कषाय-आत्या
ट्रव्य आत्मा के पश्चात् दूसरा नम्बर आता है. कषाय-आत्मा का। कषाय-आत्मा हम किसे कहेंगे? क्रोध, मान, माया, लोभ ई चार प्रकार के कषाय हैं जो आत्मा को कर्म-बन्धनों में जकड़ते हैं। कहा गया है।
“आत्मानं कषयति झो कषायः।" अर्थात् जो आत्मा को कसते हैं, वे कषाय हैं। दूसरे शब्दों में जिनके कारण आत्मा को पुन:पुनः जन्म-मरण की प्राप्ति हो उन्हें कषाय कहा जाता है। इन चारों कषायों के कारण आत्मा का जितना अहित जोता है, उतना और किसी भी निमित्त से नहीं हो सकता। कषाय कर्म-बन्धन के मुख्य और प्रबल कारण होते हैं। इनके द्वारा कलुषित हुई आत्मा में सम्यक्ज्ञान, सम्प्रदर्शन और सम्यक्धारित्र का समावेश नहीं हो सकता। जैसा कि सूरदास जी ने कहा है :
"सूरदास की काली कंबरिया चढ़त न दूजो रंग।" जिस प्रकार काले रंग के कम्बल पर दूसरा कोई भी रंग चढ़ाना चाहें तो नहीं चढ़ सकता, इसी प्रकार कषायों में जो आत्मा काली हो जाती है उस पर कोई भी अन्य सद्गुण-रूपी रंग नहीं जढ़ता अर्थात् किसी भी गुण का हृदय में प्रवेश नहीं हो सकता। आत्मा के पतन में मूल कारण कषाय ही होते हैं। ज्यों-ज्यों कषायों की तीव्रता बढ़ती जाती है, आत्मा की स्वाभाविक धमक मंद होती जाती है। तथा उसमें रहे हुए सद्गुण नष्ट हो करते हैं। हमारे शास्त्रों में कहा भी गया