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________________ अमरता की ओर ! [१८] अमरता की ओर ! धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो! कल खग्रास चन्द्रग्रहण था अतः आज अस्वाध्याय होने के कारण शास्त्रीय मूल पाठ नहीं बोला जा सकता, क्योंकि खग्रास या चन्द्रग्रहण में स्वाध्याय नहीं करना चाहिए यह शास्त्र की आज्ञा है। इसलिए आज एक दूसरा ही वाक्य ब्लहता हूँ : "आयाणं जाणाहि" इसी का संस्कृत अनुवाद है : [ २०६] - "आत्मानं विध्दि ।" दोनों का अर्थ है - आत्मा का पहचानना । प्रश्न उठता है कि आत्मा किसे कहते हैं? एक जैनाचार्य ने आत्मा की व्याख्या इस प्रकार की है "अतति सातत्येन गच्छति चतुरशीतिलक्षयोनौ कर्मवशात् इति आत्मा ।" अर्थात् जो कर्मों के वश में होकर चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है, वह आत्मा है। कर्मों के बन्धन में बँधे रहने देत कारण ही आत्मा को नाना-योनियों में भटकना पड़ता है। जिस दिन कर्मों का कय हो जाएगा, उस दिन उसका भटकना बन्द हो जाएगा, तथा कर्मों से मुक्ति मिल जाएगा। प्रत्येक मनुष्य जो भी जप, तप, सत्संग, शास्त्र- श्रवण, परोपकार, दान व धर्मक्रियाएँ करता है, वह कर्मों के बन्धन से मुक्त होने के लिए ही करता है। किन्तु उसमें श्रध्दा व भावना की कमी अथवा अभाव होने के कारण उसे इच्छितफल प्राप्त नहीं हो पाता अर्थात् वह कर्म-मुक्त नहीं हो पाता तथा उसकी आत्मा का भव भ्रमण जारी रहता है। हमारे शास्त्रों में आत्मा आठ प्रकार की बताई गई है। सुनकर आपको आश्चर्य होगा कि वह तो एक ही है फिर आठ शकार उसके कैसे हुए? मैं आपको यही बताने जा रहा हूँ, पर पहले यह बतादूँ के वे आठ प्रकार कौन-कौन से हैं जो
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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