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अमरता की ओर!
[२०८]
कोहो पीई पणासेइ, माणो विषय-नासणो। माया मित्ताणि नासेई, लोभो साच विणासणो।
दशवकालिक सूत्र क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का, माया मित्रता को नष्ट करती है तथा लोभ समस्त सद्गुणों को नष्ट कर देता है।
इस प्रकार कषाय आत्मा के सद्गुणों का नाश करके उसे दुर्गुणों का भंडार बना देते हैं तथा उन अवगुणों के द्वारा बैंधने वाले कर्मों के कारण आत्मा को संसार सागर में भटकना पड़ता है।
अब प्रश्न यह है कि आत्मा का कषाय-आत्मा क्यों कहा गया है? एक उदाहरण से आप इसे समझ सकेंगे। जैसे जल अपने स्वाभाविक रूप में श्वेत शुध्द
और निर्मल होता है किन्तु उसे ही बोतनों में भरकर उनमें लाल, पीला या हरा रंग डाल देने से वह लाल, हरा या पता जल कहलाने लगता है। उसी प्रकार आत्मा अपने सहज रूप में शुध्द और निर्मल होती है किन्तु उस पर क्रोध , मान, माया तथा लोभादि कषायों का रंग चढ़ जाने से अर्थात् उसमें कषायों का प्रवेश हो जाने से कलुषता आ जाती है तथा ऐसी आत्मा कषाय आत्मा कहलाने लगती है। ३. योग-आत्मा
योग-आत्मा आत्मा का तीसरा प्रकार है। योग तीन होते हैं, मनोयोग, वचनयोग और काययोग। इन तीनों योगों सहित जी आत्मा होती है उसे योग-आत्मा कहते हैं। आप शंका कर सकते हैं कि पृथ्वी, पानी एवं वनस्पतियों के मन योग नहीं है, वचनयोग भी नहीं है फिर क्या उनमें आत्मा नहीं है? उत्तर इसका यही है कि पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि में मन और वचनयोग नहीं है पर काययोग तो है ही। अर्थात् शरीर उनमें है। तात्पर्य यह है कि तीनों योगों में से जहाँ एक भी योग हो, उसे योग-आत्मा कहते हैं। ४. उपयोग-आत्मा
उपयोग बारह हैं। पाँच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार दर्शन ये बारह उपयोग होते हैं, और इन बारह उपयोगों में से कोई भी उपयोग प्राप्त हो वह आत्मा उपयोग-आत्मा कहलाती है। ५. ज्ञान-आत्मा
आत्मा जब ज्ञान में रमण करती है, अर्थात् चिन्तन करती है - आत्मा का निजी गुण क्या है? यह क्यों भव-भ्रमण करती है? इसकी मुक्ति कैसे हो सकती है? मुझे क्या करना चाहिए? माष्य-जन्म सार्थक कैसे किया जा सकता