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________________ रक्षाबंधन का रहस्य [२००] बहिन भी भाई से कहती है - मैया! मैं तुम्हें राखी बाँध रही हूँ। इसके बदले में तुम मुझे निभाते रहना! तुम्हन बल पर ही मैं ससुराल में गौरवपूर्वक रह सकूँगी। पद्य में रक्षा-बन्धन का महत्व केवल बहन-भाई के लिये ही नहीं, वरन् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्गों के लिये बताया है। वैश्यों अर्थात् वणिकों के लिये कहा गया है : रक्षा बांधे वणिक कलम के और दवातां के ताई रे। प्रतिज्ञा है नीति धर्म से करु लमाई रे॥ रक्षा आई रे। व्यापारी किसको राखी बाँधते है? अपनी कलम को, जिससे वे लिखते हैं। और दूसरे दवात को, जिसमें स्याही स्खते हैं। वे कलम और दवात को राखी बाँधकर प्रार्थना करते हैं कि हमें अनीति और अन्याय के मार्ग पर जाने से रोकना, हमारी लेखनी से किसी की रोजी न फली जाय अथवा उसे और किसी प्रकार का नुकसान न उठाना पड़े। तुलसीदास जी ने कहा है - नीति न तजिये राज पद पाये।' मनुष्य को कितना भी वैभव क्यों F प्राप्त हो जाय, अथवा कैसी भी दरिद्रावस्था में उसे रहना पड़े, नीति का त्याग नहीं करना जाहिये। आज के व्यक्ति धन की लालसा के कारण इस बात का ध्यान नहीं रखते और 'येन-केन-प्रकारेण' पैसा पैदा करने में लगे रहते हैं। झूठे सचे दस्तावेज बनाकर गरीबों का गला काटते हैं। इसीलिये दुनियों उन्हें 'कलम-कसाई' के नाम से पुकारती है। जिन्हें दुनियाँ अब तक महाजन कहती थी, उन्हीं को 'कलम-कसाई' की उपाधि से विभूषित होना पड़ता है। तथा अनीति । के मार्ग पर चलने से कर्मों का निबिड़ बंध होता है वह अलग। सारांश यह नि अनीति से अथोपार्जन करने वालों का अपयश के कारण यह लोक तो बिगड़ता ही है, परलोक में भी शांति नहीं मिलती। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को अपनी कलम को रक्षा-बन्धन बाँधते हुए दृढ़ प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि इसके द्वारा मैं कभी असत्य नहीं लियूँगा, अनीति के कार्यों में यह लेखनी नहीं चलेगी तथा अपने लिखे हुए प्रत्येक शब्द का मैं प्राण देकर भी पालन करूँगा, कभी अपने वायदे से हटूंगा नहीं। बात के धनी व्यक्ति ऐसा ही करते हैं। मैं अपनी लेखनी को नहीं बदल सकता! रातेड़ा नामक गाँव में एक सेठ रछी थे। नाम था राजकिशोर। उनका व्यापार चारों ओर फैला हुआ था, जिसमें एक तम्बाकू का व्यापारी भी था।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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