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________________ • [१९९] आनन्द प्रवचन : भाग १ से बचाने और दान, शील तथा तप का भावसपूर्वक आराधना करने से अशुभ-कर्मों का बंध नहीं होता तथा आत्मा कर्म-भोग के कष्टों बचती है। अभी-अभी शम्भूगढ़ निवासी शोभालात जी नाहर ने शील-व्रत का नियम लिया। यह भी आत्मा की रक्षा है। भाई पुराराज जी ने सपत्नीक आज इकत्तीस किये हैं, यह भी आत्मा की रक्षा के लिये है! आज ही कपासन में रहने वाले नाथूलाल जी ने 'बीरवाल' प्रवृत्ति का परिचय आपको दिया। वास्तव में जहाँ एक अत्मा को भी परमार्थ की ओर मोड़ना बड़े लाभ का और उत्तम कार्य है, वहाँ इन्होंने सैकड़ों और हजारों व्यक्तियों को इस मार्ग पर बढ़ा दिया। इस कार्य में सुमेरपुनि जी, तथा और भी मुनिराजों ने योग दिया था। मुझे अफसोस है कि सुमेरमुनि जी । जिस विभाग में दीक्षित हुए थे, उसे छोड़ कर दूसरी प्रवृत्ति में चल गए। लोगों के लाख समझाने पर भी नहीं माने मेरे कानों में यह भी आवाज आई थी की उन्होंने बीरवाल समाज को भी अपनी प्रवृत्ति में आने का आग्रह किया था। किन्तु] बीरवाल भाई अत्यन्त समझदार हैं। उन्होंने कह दिया हम अपनी श्रद्धा को कायम रखेंगे। ऐसी दृढश्रद्धा रखने वाले व्यक्ति ही अपनी आत्मा की रक्षा कर सकी हैं, तथा दृढश्रद्धा रखने वाले ऐसे समाज का रक्षण करने वाले व्यक्ति भी रक्षा-संधन का महत्त्व समझते हैं यह मानना चाहिये। तो मेरे कहने का तात्पर्य यही है के मनुष्य को अपनी स्वयं की रक्षा, अर्थात् अपनी आत्मा की रक्षा अवश्य कसी चाहिये। अगर ऐसा न किया गया तो आत्मा को अनंतकाल तक पुन: पुन: शपिर धारण करने की तथा नाना प्रकार की यन्त्रणाएँ भिन्न-भिन्न योनियों में जन्मधारण करने पर भुगतनी पड़ेगी। इन सबसे बचने के लिए आत्म-रक्षा करना अनिवार्य है। तभी हमारा रक्षा-बंधन के त्यौहार को मानना सच्चे मायने में सार्थक होगा। इसके अलावा रक्षा-बंधन का साधारण अर्थ आप जानते ही हैं। कहा भी जाता है रक्षा आई रे। सब जीवां तांई यहा संदेशा लाई रे। बहिन भाई के रक्षा बांधे लीजे मा निभाई है। अरे सासरिये गाज स. पीहर में गई रे। रक्षा आई। अर्थात् रक्षा करने का दिन आया है। बन्धुओ, तुम प्राणीमात्र की रक्षा करो! जो भी प्राणी संकटमय अवस्था में हैं, और जिन्हें भी सहायता की आवश्यकता है, सभी को अपनी शक्ति के अनुसार सहाका प्रदान करो तथा उनका रक्षण करो। यही रक्षा-बन्धन का संदेश है।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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