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________________ • [१९५] भावना और भक्ति कर्म-भोग संसार में जो कुछ भी मनुष्य को प्राप्त होता है वह सब किसी न किसी कारण से छुट सकता है, अथवा मृत्यु के साथ ही छूट जाता है, किन्तु कर्मों से छुटकारा, बिना उन्हें भोगे नहीं हो सकता। एक पाश्चात्य विद्वान ने कहा है "अभाग्य से हमारा धन, नीचता से हमारा यश, मुसीबत से हमारा जोश, रोग से हमारा स्वास्थ्य तथा मृत्यु से हमारे मित्र हमसे छिन सकते हैं, किन्तु हमारे कर्म मृत्यु के बाद भी हमारा पीछा करते हैं।" कोल्टन तुलसीदास जी ने भी कहा है : करम प्रधान विश्व करि राखा। जो जा करइ सो तस फल चाखा। यह संसार कर्म-प्रधान है। प्राणी को अपने कृतकों को भोगे बिना, छुटकारा नहीं मिलता। जो जैसे कर्म करता है उसे उनके अनुसार फल भोगना ही पड़ता इसलिए बंधुओ! हमें अशुभ कर्मों से बचते हुए शुभ कर्मों के बंध का प्रयत्न करना चाहिए। और वह निर्भर है हमारी भावना और भक्ति पर। जब तक हमारा मन सांसारिक पदार्थों तथा सांसारिक सम्बन्धों में आसक्त रहता है तथा क्रोध, मान, माया तथा लोभादि से विमुख नहीं होता तब तक हृदय में भक्ति के बीज अंकुरित नहीं होते। सची भक्ति मनुष्य तभी कर सकता है जब कि : इष्ट अनिष्ट को जोग बने तब, हर्ष विशद नहीं चित्त आने। स्व-पर-रूप को बोध जगे, पंच द्रव्य से भिन्न निजातम जाने। कब आत्मा में सची भक्ति जागती है? जबकि मनुष्य इष्ट का योग होने पर हर्षित न हो अर्थात् सुखकारी प्रसंग उपस्थित होने पर प्रसन्नता जाहिर न करें तथा दुखद अवसरों के आने पर या संक. के समय धर्म न खोवे और चित्त को आकुल व्याकुल न होने दे। आपकी आत्मा के स्वरूप को समझाने तथा इससे इतर जो पदार्थ हैं उनकी अस्थिरता का ज्ञान करले । जब वह अपनी आत्मा को पर पदार्थों से भिन्न समझने लगेगा, तभी भक्त्ति की ओर कदम बढ़ा सकेगा । वि ने आगे कहा है - धाय समान कुटुम्ब को पालत, कर्म बन्धन को उर माने। सम्यक्दृष्टि करे शिव-साधन, अमृत यो जिन वैन बखाने। अपने परिवार का पालन-पोषण इस प्रकार करे, जैसे एक धाय दूसरे के बालक को पालती है। अर्थात् जिस प्रकार काय की बालक में आसक्ति और समता
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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