SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावना और भक्ति इस शंख के बजाने से प्राप्त हो जाएगा, किन्तु यह ध्यान रखना कि तुम्हारे पड़ौसियों को तुम से दुगुना मिलेगा।" भक्त इस बात पर विशेष ध्यान दिये बिना ही प्रसन्नतापूर्वक चला मया उसे शंख के मिलने की ही बड़ी भारी खुशी थी। घर जाने पर उसी समय उसने1 शंख बजाया और इच्छा प्रकट की कि हमारा मकान बड़ा भव्य और सुन्दर बन जाय। शंख के बजते ही उस व्यक्ति का मकान बड़ा ही सुन्दर और आलीशान हो गया। देखकर वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। किन्तु कुछ समय बाद जबकि कार्य-वश वह दरवाजे से बाहर निकला तो देखा कि उसके पड़ोसियों के उसके समान अत्यन्त दो-दो मकान बन गए हैं। देवी के भक्त को यह बहुत बुरा लगा और उसने बड़ी अश्रध्दापूर्वक उस शंख को मकान के एक कोने में डाल दिया। परन्तु कुछ दिन बाद उसे रूपयों की बड़ी आवश्यकता पड़ी तो पुन: विवश होकर उसने शंख उठाया और उसे फूंका। शंख के द्वारा उसे उसी क्षण बहुत सा धन मिल गया। पर उससे दुगुना उसके पड़ौसियों को भी मिला। इस बार तो भक्त क्रोध से आग-काबूला हो उटा और सर्प की तरह फुफकारते हए बोला - 'मेरे मकान के आँगन में चार कर खुद जायें।' पलक झपकते ही उसकी इच्छा पूरी हो गई। उसके आँगन में चार और उसके पड़ौसिये के यहाँ आठ-आठ कूएँ खुद गए। भक्त प्रसन्न होता हुआ शंख फिर से बजाते हुए बोला - "अब मेरी एक आँख फूट जाय।" यह भी होना ही था। उसकी एक आँख फूट गई और उसके पड़ौसी तो अपनी दोनों आँखों के फूट जाने से बिलकुल अंधे हो गए। तथा बिलकुल अंधे हो जाने की घबराहट से इधर-उधा दौड़-भाग करने लगे। परिणाम आप सोच ही सकते हैं कि एक तो अंधा होना, दूसरे आँगन में आठ-आठ कूओं का होना। बेचारे एक-एक कर सब कुएँ में गिर पई और मर गए। ईष्यालु व्यक्ति यह देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बड़े संतोष का अनुभव करने लगा। पर बंधुओ, उसका यह संतोष कितना मँहगा पड़ा होगा? इसकी कल्पना आप कर सकते हैं? एक आँख तो रटी सो फूटी ही, कैसे निबिड़ कर्मों का भी बंध हुआ होगा और कब उन पंचेन्द्रिय जीवों की हत्या के पाप से उसे छुटकारा मिला होगा? यह सब है भावना का परिणा। दूध ने पानी को अपने में मिलाया तो पानी उसकी रक्षा का कारण बना। तेल ने पानी को नहीं अपनाया तो उसे जलना पड़ा। इसी प्रकार देवी के भक्त से शेरों की बढ़ती सहन नहीं हुई तो अपनी दुर्भावना के कारण अनेक जन्म-मरण के कष्ट भोगने पड़े।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy