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________________ .[१९३] भावना और भक्ति शरणागत कहे जे तजहिं, हित अनर्हत निज जानि। ते नर पामर पाप प्रय, तिन्हहिं विताकत हानि। जो व्यक्ति यह सोचकर कि कहीं मेरा किसी प्रकार से अहित न हो जाय, अपने शरणागत को त्याग देते हैं। वे महापापी और निकृष्ट प्राणी होते हैं ऐसे व्यक्तियों का मुँह देखना भी उचित नहीं है। तो, दूध ने अपने शरणागत पानी के लिये जब सोचा कि यह जल जाएगा तो उससे पहले वह स्वयं ही जल जाने के लिये ऊफन कर कढ़ाई से बाहर आने लगा। पर पानी कब बर्दाश्त करता कि जिसने मुझे आश्रय दिया वह मुझसे ही नष्ट हो जाये। अत: वह ऊपर से छींव के रूप में आया। और जब दध ने देखा कि मेरा मित्र आ गया है तो उसका स्नेह उमड़ा और वह शांत हो गया। स्नेह और मैत्री का कितना सुन्दर उदाहरण है। ___एक ओर तो ऐसा सुन्दर स्नेह है तथा दूसरी ओर अहंकार और कपट से भरा हुआ तेल के स्नेह का उदाहरण है। बेचारा पानी एक बार तेल के समीफ भी जा पहुँचा। तथा तेल से बोला - 'बन्धु! तुम्हारी बहुत कीमत है, और मुझे कोई कीमत देकर नहीं लेता अत: तुम ही मुझे अपने में मिला लो ताकि मेरी भी कुछ कद्र हो जाय। यह कहते हुए पानी तेल में गिर पड़ा। किन्तु तेल ने क्या किया? वह बहुत ही क्रोधित हुआ और ऐंठकर पानी के सिर पर चढ़ गया। जैसा कि कवि ने कहा है - तेल नीर से मिला नहीं ऊपर से ऐंठा, रोंदा पैरों तले और सिर पर चढ़ बैठा। पानी अत्यन्त दुखी हुआ, पर कसा क्या? मन मसोस कर रह गया। किन्तु समय एक सा तो रहता नहीं। कहा भी जाता है 'वक्त आने पर घूरे के भी दिन फिर जाते हैं।' वही हुआ। जब पानी मिले उस तेल को दीपक में डाला गया और बत्ती में तीली लगाई, तो उसने पहले तेल को खींचकर जला डाला। यह नतीजा होता है दूसरे का बुरा चाहने वाले का। दूसरे के लिये कुओं खोदने वाले को स्वयं ही खाई में गिरना पड़ता है। किन्तु अपने क्रोधी और ईर्ष्यालु स्वभाव के कारण वे अपनी आदत से बाज नहीं आते। एक फाहरण है - चमत्कारिक शंख एक मनुष्य की भक्ति और उपासना से प्रसन्न होकर किसी देवी ने स्वयं प्रकट होकर उसे एक शंख प्रदान किया और कहा - "तुम जो कुछ भी चाहोगे,
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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