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भावना और भक्ति ओर बढ़ना चाहिये। अनीति और अधर्म का त्याग करके नीति और धर्म को अपनाना चाहिये तथा भावनाओं की निर्मलता के द्वारा अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। अगर हमारी भावना शुध्द नहीं होगी, मन में छल व कपट बने रहेंगे तो इस शरीर के द्वारा जो भी क्रियाएं की जाएँगी उनसे कोई शुभ फल प्राप्त नहीं हो सकेगा। एक बोत्वे ने इसी विषय को अपनी एक कविता में समझाया है:
मिला मिलाया उसे, मिला जब पय से पानी, जला प्रथम घरी स्नेह, अम्ल में की कुर्बानी तेल नीर से मिला नहीं, उमर से ऐंठा।
रोदा पैरों तले और सिर पा चढ़ बैठा। जलने में भी दीपके, हुआ उसी बार है।
सुफल कुफल पद जगत में, अपना ही व्यवहार है। .
कवि ने कहा है कि जब पानी दूध से मिलने आया तो उसने सहर्ष उसे अपने आप में मिला लिया। दूध को कीमत अधिक है और पानी की कम। यद्यपि पानी के बिना किसी भी प्राणी का काम नहीं चलता किन्तु उसकी कीमत कुछ भी नहीं होती। अतः उसने सोचा' - 'लोग मेरी कद्र नहीं करते हैं। अत: मैं दूध के पास चलूँ। वह द्रव पदार्थ है और मैं भी द्रव हूँ अत: उसमें मिल जाऊँमा तो उससे मिलने पर मेरा भी कुछ मन हो जाएगा।
वह दूध के पास गया। और ध्यान देने की बात है कि दूध ने उसे बड़े स्नेह से अपने में मिला लिया। साथ ही उसे अपना रंग और स्वाद भी दे दिया। दूध के समान रंग और स्वाद लेकर पानी की कीमत बढ़ गई और वह दूध के साथ बिकने लग गया।
पर दोनों की प्रगाढ़ मैत्री, सम्लता और हृदय की निष्कपटता का पता तब चला, जबकि दोनों मित्रों को हलवाई ने कढ़ाई में डालकर आग पर चढाया।
आग पर चढ़ने के बाद दोनों में से पहले कौन जलता? पानी। अत: दध ने सोचा कि जिसे मैंने अपने आप में मिलाया है, आश्रय दिया है उसे अपने रहते कोई कष्ट नहीं होने दूंगा।
दूध का विचार सत्य था। शरणागत की रक्षा करना प्रत्येक का परम कर्तव्य है। जो अपने शरणागत की रक्षा नहीं करता उसका अस्तित्त्व में आना वृथा है। वेदव्यास जी ने कहा भी है -
"शरणागत की रक्षा करना महान पुण्य का कार्य है, ऐसा करने से महापापी का भी प्रायश्चित्त हो जाता है।"
संत तुलसीदास जी ने भी लिखा है: