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भावना और भक्ति
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__ भावना और भक्त्ति ।
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धर्मप्रेमी बंधुओं, माताओं एवं बहनों! संस्कृत में एक सुभाषित कहा जाता है :
"याशी भावना यस्य, सिध्दिर्भवति तादृशी।" जिसकी जैसी भावना हुआ करती है, उसको उसके समान ही सिद्धि मिला करती है।
प्रत्येक काम में प्रयत्न से ज्यादा काम के पीछे रही हुई भावना का महत्व होता है। जो काम शुध्द-भावना से किया जाता है, वह देखने में भले ही छोटा हो किन्तु उसका फल बड़ा मधुर होता है। तथा बड़े से बड़ा काम भी अगर निकृष्ट और हीन-भावना लेकर किया जाय ता उसकी कोई कीमत नहीं होती। और उसका फल भी शुभ नहीं होता।
अभिप्राय यही है कि महत्त्व भावना का होता है। तथा मनुष्य भावना के द्वारा ही अपने प्रत्येक काम का फल प्राप्त करता है। भावना दृढ़ हो तो उसे अपने प्रयत्न में असफलता नहीं मिल सकती।
मान लो, कोई व्यक्ति विद्वान बनने की इच्छा रखता है तो भावना सहित प्रयत्न करने पर अवश्य सफल हो सकता है, कोई धनवान बनना चाहता है तो अपनी तीव्र भावना और परिश्रम से उसमें भी सफलता पा लेता है। और इसी प्रकार जिसकी भावना भक्त बनकर भक्ति करने की होती है तो भक्त बन सकता है। इतना ही नहीं, जो परमात्मा बनना चाहा है, दृढ़ संकल्प और सम्पूर्ण इच्छा शक्ति के द्वारा कर्म-मुक्त होकर परमात्मा भी बन सकता है। पर उसके लिए भक्ति की आवश्यकता पहले है।
भक्ति का महत्त्व भक्ति का अर्थ है भावों की निर्मलता सहित शुद्ध प्रेम। जब तक प्रेम था स्नेह में पवित्रता नहीं होती वह भक्ति का रूप नहीं ले पाता। ईश्वर के प्रति, गुरु के प्रति तथा सच्चे संत-महात्माओं के प्रोते जो विशुध्द प्रेम होता है, उसे ही भक्ति कहते हैं तथा ऐसी भक्ति के माधुर्य का केवल भक्त ही अनुभव कर सकता है। भक्त कबीरदास जी कहते हैं -