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________________ • प्रार्थना के इन स्वरों में [१८] कलियुग की बात सुनकर राजा ने उसे स्वर्ण का एक गोला बनाया और कहा - "इसमें जुआ, चोरी, शराब और वेश्या, सभी एक साथ मिल जाते हैं। इसी में तुम रह जाओ।" बंधुओ, वास्तव में ही कलियुग का निवास स्वर्ण तथा दूसरे शब्दों में धन के अन्दर रहता है। कलियुग का दूसरा नाम ही दुबुदि है जो सोने-चाँदी के रूप में मनुष्य के मन में घर कर लेता है। इसलिए आत्मार्थी व्यक्ति को धन की लालसा का त्याग किये बिना छुटकारा नहीं है। धन के अभिलाषी मनुष्य के हृदय में से समस्त सद्गुणों का लोप हो जाता है यहाँ तक कि : अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते। जनितारमपि त्यक्त्वा नि:स्त्रं गच्छति दूरतः।। इस संसार में धन की कामना करने वाला मनुष्य श्मशान का भी सेवन करता है तथा धन से रहित होने पर अपने जन्म-दाता माता-पिता को भी दूर से ही छोड़कर चला जाता है। मेरे कथन का सारांश यही है कि मनुष्य जब अनेक दुर्गुण-रूप लक्ष्मी के प्रति रही हई अपनी लालसा का त्याग कर दे तथा विषय-विकारों से मन को मोड़कर दान, शील, तप और भाव वैत आराधना में निमग्न रहे तभी वह अपने दुर्लभ मानव-जन्म को सार्थक कर सकता है तथा मनुष्य पर्याय रूपी जंकशन से अपने इच्छित मार्ग की ओर जा सकता है। पर इसके लिये मैंने अभी कााया था कि जिस प्रकार आप गाड़ी पर चढ़ने से पूर्व टिकिट लेते हैं, बिना ठिोकेट लिए उस पर बैठकर जा नहीं सकते, उसी प्रकार इस मानव पर्याय-रूपी जंशन से भी आपको शुभ-क्रियाओं के द्वारा उपार्जित पुण्यरूप टिकिट लेना पड़ेगा। और आपकी गाड़ी चल देगी बंधुओ, बड़ी कठिनाई से यह मनुष्य-भव रूपी जंक्शन आपको मिला है। यह खो गया तो पुन: कब मिलेगा परत नहीं। इसीलिये आपको ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करनी चाहिए। ताकि पुनः मनुष्य-गति, देव-गति या उत्कृष्ट रसायन आ जाए तो मोक्ष-गति भी मिल सके।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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