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आनन्द प्रवचन : भाग १ ही कारागार की हवा खानी पड़ जाती है।
इसलिए पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज कहते हैं कि बोली एक अमूल्य रत्न है और प्रत्येक विवेकवान व्यक्ति अपनी जिह्वा से सोचकर शब्द निकालता है। नीच पात्र-प्रियता
कहने का अभिप्राय यही है कि श्रीमन्तों देत हजारों और लाखों रूपये अशुभ-कार्यों में अर्थात् नाटक, सिनेमा, सैर-सपाटों, ब्याह-शादियों अथवा भोज व शान-शौक के कार्यों में खर्च हो जाते हैं किन्तु शुभ-कार्य में उनसे नहीं दिया जाता।
जब मनुष्य के पास पैसा उसकी ओनेवार्य आवश्यकताओं से अधिक हो जाता है तो वह उस पैसे को निकृष्ट कार्यों में उड़ाने लगता है। मदिरा पान, वेश्यागमन, मांस-भक्षण तथा सट्टे और जूए में वह रुचि लेने लगता है। परिणाम यह होता है कि उसको सब संगी-साथी निम्न-कोटि के मिलते हैं। बाध्य होकर उसे नीच व्यक्तियों की संगति में रहना पड़ता है। यह सब लक्ष्मी की ही करतूत होती है। वह अच्छे-भले व्यक्ति की आदतों को बिगाड़ती है और फिर वैसे ही व्यक्तियों की संगति में ले जाती है। अभिप्राय यही है कि वह विद्वान तथा चरित्रवान व्यक्तियों की प्रिय-पात्र नहीं बनती। क्योंकि वे सरस्वती का वरण करते हैं, लक्ष्मी का नहीं। इसीलिये लक्ष्मी का संबंध दुर्जनों में रहता है, सज्जनों से नहीं। दुर्जन व्यक्ति लक्ष्मी से सम्बन्ध रखते हैं और लक्ष्मी उन्हें अपना प्रिय-पात्र बनाती है। उन्हीं की होकर रहती है।
इस प्रकार, जिस लक्ष्मी के कारण धाप मनुष्य को बड़ा बताते हैं, वह अपने साथ पाँच जबर्दस्त अवगुण लेकर आती है जो मानव को गलत मार्ग पर चलाकर उसका यह उत्तम जीवन निरर्थक बना देती है। राजा परीक्षित की कथा से तो ऐसा लगता है कि सम्पूर्ण कलियुग ही धन में या स्वर्ण में निवास करता
है।
राजा परीक्षित बड़ा न्यायप्रिय और दयालु राजा था तथा अपनी प्रजा की सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखता था। राज्य में चारों तरफ अमनचैन का प्रसार था।
कहा जाता है कि एक बार कलियुग को कहीं भी अपने रहने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं मिला तो वह राजा परीक्षित के पास गया और उनसे अपने रहने के लिए स्थान माँगा।
राजा ने कहा - "मेरे राज्य में तो तुम्हें रहने के लिए कही भी स्थान नहीं है।" पर कलियुग माना नहीं और उसमें बड़ी दीनता से पुन: अपनी माँग रखी। तब राजा ने दयार्द्र होकर कहा - अच्छी बात है, जहाँ पर जुआ, चोरी, मदिरा और गणिका हों, वहाँ तुम रह जाओ।"