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________________ • प्रार्थना के इन स्वरों में [१८६] यह संतोष की वैरिन है। जहाँ स्वयं रहते है संतोष को नहीं टिकने देती। इसलिये इस कु-भावना का तो समूल नाश करना ही उचित है। कर्कश भाषण कट्र बोलना भी लक्ष्मी का सहवर है। ज्यों-ज्यों लक्ष्मी बढ़ती है, मनुष्य के जबान की मधुरता घटती जाती है। तथा अभिमान के कारण मुँह से कर्कश और गर्व-युक्त वचन निकलने लगते हैं। अपने धन-सम्पन्न होने के कारण अन्य निर्धन व्यक्तियों से उनका व्यवहार अत्यन्त रूख ! और कटु हो जाता है। श्रीमन्तों के पास अगर कोई चंदा लेने आ जाए तो उनकी मानों मुसीबत ही आ गई समझो। जितना धर्म-कार्य अथवा किसी सामाजिक कार्य के लिए पैसा देंगे उससे कहीं अधिक तो वे साथ में कर्कश वचन कहेंगे। और दाजे पर भिखारी आ गया तो उसकी खैर नहीं रहती। एक गरीब और दयालु व्यतो तो भिखमंगे को अपने भोजन में से रोटी का एक टुकड़ा दे भी देगा, किन्तु लक्ष्मीपति के द्वार पर उसे गालियों के अलावा और कुछ मिलना कठिन है। भले ही वे अपना यश बढ़ाने के लिए अथवा दान-दाताओं की लिस्ट में अपना नाम सबसे ऊपर लिखवाने के लिये कुछ पैसा दे देंगे। किन्तु किसी अभावग्रस्त व्यक्ति के दखाजे पर आ जाने पर उसे कर्कश वचनों के अलावा और कुछ नहीं देंगे। लक्ष्मी का चरण पड़ते ही उनके हृदय से दया का लोप हो जाता है, अहंकार पनपता है, तृष्णा अपना साम्राज्य फैला देती है और वचनों में कर्कशता आ जाती है। परिणाम यह होता है कि स्वयं बोलने वाले के कर्मों का बंध तो होता ही है, साथ ही उसके अनेक मन बन जाते है तथा मित्र भी विमुख हो जाते हैं। इसीलिये महापुरुष कर्कश-भाषा व सर्वथा त्याग करने का उपदेश देते हुए मधुर-वचनों का महत्त्व बताते हैं। कहते है : बोली से आदर और जा में सुजस होय, बोली से सकत जन, मित्र हो रहत हैं। बोली से अनेक विधि जिन मधुर मिले, बोली से सुने गाली मार भी सहत हैं। बोली से सुप्यार और बाली से पैजार त्यार, बोली से कलेला कारागृह भी सहत हैं। कहे अमीरिख नर बोली है रतन सार, सुगुण विवेकल तोल के कहत हैं। वचनों के द्वारा ही मनुष्य को जग में आदर मिलता है, सुयश फैलता है तथा मित्र बनते हैं। मधुर वचनों से जहाँ मिष्टान्न खाने को मिलते हैं, वहाँ कटु वचनों से मार भी खानी पड़ती हैं। बोली से ही प्यार मिलता है, बोली से
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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