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________________ • [१८५] आनन्द प्रवचन : भाग १ लक्ष्मी का साथ देने वाला तीसरा अवारण है तृष्णा। तृष्णा मनुष्य को पागल बना देती है। लखपति से करोड़पति बन जाऊँ और करोड़पति हूँ तो उतने से क्या? कहीं का राज्य पा जाऊँ तो ठीक रहे: मानव के मन में इसी प्रकार तृष्णा बढ़ती जाती है। हमारे 'उत्तराध्ययन-सूत्र' के नवें अध्ययन में बताया गया है - सुवण्ण रूपस्स उ पन्वया भवे, सियाहु कलाससमा असंखया। नरस्स लुध्दस्म णतेहि किंचि, इच्छा हु धागास समा अणन्तिया॥ यदि कैलाश पर्वत के समान सोने और चाँदी के असंख्य पर्वत भी मनुष्य के पास हो जायें तो भी उसे सन्तोष नहीं होता। क्योंकि इच्छा तो आकाश की तरह अनन्त है। तृष्णा पर विजय प्राप्त करना बड़ा कठिन है, पर यह बात नहीं है कि कोई इसे जीत नहीं सकता। सचे संत और महापुरुष इसे जीत कर ही छोड़ते भय को फेंक आया एक बार गुरु मच्छिन्द्रनाथ अपने शिव्य गोरखनाथ के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में गुरुजी ने अपनी झोली शिष्य को ले करने के लिये दे दी। गोरखनाथ ने झोली को भारी देखकर चुपके से उसमें झाँका। देखा कि झोली में सोने की ईंटें हैं। उन्होंने चुपचाप ही सब ईं फेंक दी और चलने लगे। कुछ देर चलने पर निर्जन वन आशा देखकर गुरु ने कहा - "वत्स! हमें इस जन-रहित मार्ग से जाना है। रास्ते में कुछ भय तो नहीं है?" गोरखनाथ बोले - "भगवन् ! भय को तो मैं पहले ही रास्ते में फेंक आया। आप निश्चिन्तता पूर्वक चलिये।" महापुरुषों के लिए धन इसी प्रकार महत्त्वहीन होता है। गोरखनाथ के हृदय में तृष्णा की भावना तो थी ही नहीं, उलटे जो धन था उसका भी उन्होंने पलक झपकते ही त्याग कर दिया। महामानवों का उदय इस बात को भली-भाँति जानता है कि जीर्यन्ते जीर्यते केशा:, दन्ताः जीर्यन्ति जीर्यतः। चक्षुः श्रोत्राणि जीर्यन्ति, तृष्णका तरुणायते॥ वृध्दावस्था में बाल जीर्ण होकर समंद हो जाते हैं, दाँत टूट जाते हैं, आँख और कान जीर्ण-शक्तिरहित हो जाते है। पर एक तृष्णा ऐसी है, जो सदा तरुणी ही बनी रहती है! वास्तव में ही तृष्णा मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को बखाद कर देती है।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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