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________________ प्रार्थना के इन स्वरों में [१८४] तू इतना पढ़-लिखकर भी दरिद्र ही रह गया। विद्वान् व्यक्ति ने कहा - "भाई साहब! आप मिश्र देश के कोषाध्यक्ष की उस गद्दी पर बैठे हैं, जिस पर अनेक व्यक्ति बैठाए गये और उतार भी दिये गये हैं। आप केवल कोषाध्यक्ष हैं, कोष तो आपका नहीं है। किसी भी दिन आपका नम्बर भी गद्दी से हटा दिये जाने वालों में आ जायेगा। लक्ष्मी कभी किसी एक के पास नहीं रहती, उसका गर्व करना व्यर्थ है।' "असली धन तो मेरे पास है। मेरा ज्ञान रूपी धन मुझ से कोई छीन नहीं सकता। रूपया-पैसा पास में न होने पर भी मैं जो कुछ उत्तम कार्य करता हूँ उससे मुझे पूर्ण संतोष प्राप्त होता है और इसी को मैं वास्तविक धन मानता हूँ। किसी ने कहा भी है - यत्कर्मकरणेनान्त: संतोषं लगते नरः। वस्तुतस्तद् धनं मन्ये, न धांधनमुच्यते । जिस काम के करने से मनुष्य को आंतरिक संतोष प्राप्त होता है, मैं वास्तविक धन उसी को मानता हूँ। लौकिक धन को धन नहीं कहा जाता। लेकिन धन से आत्मा का तनिवत भी भला नहीं होता उलटे नुकसान ही होता है। एक पाश्चात्य विद्वान ने कहा है - "धन एक ऐसा अथाह सागर है जिसमें सत्य, शील, प्रतिष्ठा और अन्त:करण सभी डूब जाते हैं।" --कोजले धनाढ्य व्यक्ति अपनी आत्मा के लिए कुछ भी नहीं कर सकता। प्रायः दान, शील, तप या त्याग की ओर उसको प्रवृत्ति नहीं होती। इसीलिए किसी ने और भी कहा है - "सूई के छेद में से ऊँट का निकल जाना सम्भव है, किन्तु धनी मनुष्यों का स्वर्ग में जाना असम्भव है।" वास्तव में ही यह धन जो आने साथ अनेकानेक दुर्गुण भी लाता है, मनुष्य के कर्म-मार को बढ़ाता ही है, कम नहीं करता। और स्वयं भी स्थायी नहीं रहता। मानव को पतन के मार्ग में अकेलकर लोप हो जाता है या जीव को कुगति की ओर अग्रसर कर मिट्टी के समान इसी धरती पर पड़ा रहता है। इसीलिए कबीर ने कहा है कबिरा गरब न कीजिये, काहूँ न हँसिये कोय। अबहूँ नाव समुद्र में, को जार का होय। तृष्णा
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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