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________________ अब थांरी गाड़ी हॅकवा में [ १७८] कहलाते हैं। बालक में भी अगर बाल्यावस्था से ही विनम्रता होती है तो वह उत्तमोत्तम संस्कारों का धनी बनता है तथा अपने गुरु से सम्यक्ज्ञान प्राप्त करके आत्मोन्नति के पथ पर बढ़ता जाता है तथा ऐसे विना-गुण सम्पन्न जीव पुनः मनुष्य गति को प्राप्त कर सकते हैं। • मनुष्य जन्म के बंध में तीसरा सहायक कारण होता है हृदय में आक्रोश का न होना। मनुष्य में अगर मनुष्यता नामक कोई वस्तु होती है तो वह दया ही है। दया जिसके हृदय में होती है, उसके हृदय में आक्रोश का आविर्भाव नहीं होता वरन् उसकी संसार के सभी प्राणियों प्रति स्नेह व सद्भावना रहती है। जिस व्यक्ति का हृदय आक्रोश से भरा रहता है वह पशु से भी गया बीता साबित होता है। क्योंकि अहिंसा और ममत्व की भावना तो हम पशुओं में भी पाते हैं। वे भी मनुष्य के समान ही अपनी सन्तान को प्यार करते हैं तथा उनका पालन-पोषण करते हैं। बन्दरों को हम देखते हैं कि एवत बन्दरी के बच्चे को झुंड के अन्य बन्दर अपने पास जबरन ले लेकर खिलाते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि जो व्यक्ति अपनी आत्मा के समान ही अन्य सभी जीवों की आत्मा को समझते हैं, उनके ह्रदय में किसी के प्रति आक्रोश के भाव नहीं रहते। इसीलिए महापुरुष कहते हैं -- जगत के जीव ताको आतम समान जान, सुख अभिलाषी सब दुखा से डरत है। जाणी इम प्राणी पालो दया हित आणि यही मोक्ष की निसाणी जिनवाणी उबरत है। मेघरथ राय मेघकुँवर धरम रुचि, निज प्राण त्याग पर जतान करत है। जनम मरण मेट पामत अनंत सुख, अमीरख कहे शिव सुन्दर वरत है। कहा है जो व्यक्ति संसार के समस्त जीवों को आत्मवत् समझते हैं, सांसारिक दुखों से भयभीत होते हुए अक्षय सुख की अभिलाषा रखते हैं तथा हृदय में दया की भावना रखते हुए अन्य प्राणियों के प्रति सद्भावना पूर्ण व्यवहार रखते हैं, उनका यह कार्य मोक्ष प्राप्ति का पूर्व लक्षण है। ऐसा जिनवाणी का कथन है। - संसार के महापुरुष पर के प्राण बचा के लिए अपने प्राणों का भी बलिदान कर देते हैं। आप जानते ही होंगे कि राजा मेघरथ ने एक कबूतर की प्राण-रक्षाके निमित्त अपने शरीर का मांस काट-काट कर तराजू पर रख दिया था। मेघकुमार ने अपने हाथी के भव में, जंगल में लगी हुई आग से बचने के लिए आये हुए एक खरगोश के लिए अपने पैर को तीन दिन तक उठाये रखा और अपने प्राण त्याग दिये थे। इसी प्रकार धर्मरुचि मुनि चींटियों का प्राण नाश न हो इस डर से कड़वे तूम्बे के शाक को स्वयं ही खा लिया था।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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