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________________ अनमोल सांसें... • [१६९ ] करने वाले विनीत शिष्य निश्चय ही अपने गुरु को, चाहे वह उग्र स्वभाव वाले ही क्यों न हों, शान्त व प्रसन्न कर देते हैं। कहने का अभिप्राय यही है न्ति शिष्य को अत्यन्त विनय के साथ गुरु की सेवा - भक्ति करते हुए उनसे ज्ञान लेना चाहिए। गुरु को प्रसन्न रखते हुए अगर वह दो शब्द भी ग्रहण करेगा तो वे उसने जीवन में आत्मोन्नति के हेतु बन जाएँगे । गुरु की सेवा भक्ति करने में शिष्य को सी प्रकार की शर्म या झिझक नहीं होनी चाहिये। लज्जा हो भी किस बात की ? प्राचीन काल में तो बड़े-बड़े राजकुमार और दरिद्र से दरिद्र के पुत्र भी जंगलों में एरुओं के आश्रम में रहकर अध्ययन करते थे। आपने पढ़ा भी होगा कि संदीप ऋषि के आश्रम में कृष्ण और सुदामा साथ- साथ पढ़ते थे तथा समान रूप से गुरु की सेवा-भक्ति करते थे। जिस आनन्द से वे ज्ञानाभ्यास करते थे उसी आनन्द के साथ जंगल से अपने गुरु के लिये लकड़ियाँ काट कर लाया करते थे। बड़े छोटे का कोई भी अन्तर उनके हृदयों में नहीं था। ऐसी भक्ति और विनय के साथ जब गुरु से ज्ञान प्राप्त किया जाता है तो वह ज्ञान व्यक्ति को आत्म-विकास मार्ग पर बढ़ाता है तथा मुक्ति का हेतु बनता है तथा इस प्रकार ज्ञान प्राप्त कना ही ज्ञान प्राप्ति का सबसे उत्तम साधन है। ज्ञान-लाभ का माध्यम साधन ज्ञान-प्राप्ति का दूसरा साधन पाय में बताया गया है। धन के द्वारा ज्ञान हासिल करना। यह कार्य मध्यम है। वेतन देकर जो शिक्षक रखे जाते हैं वे आंतरिक स्नेह और रुचि से छात्र को विद्याभ्यास नहीं करा पाते क्योंकि उनका उद्देश्य छात्र को ज्ञानदान और सद्गुण सम्पन्न बनाने का ही नहीं होता, बरन अर्थ प्राप्ति का भी होता है। हम देखते ही हैं कि आज सुकुलों में वेतन लेने वाले शिक्षक रखे जाते हैं वे आंतरिक स्नेह और रुचि से छात्र को विद्याभ्यास नहीं करा पाते। क्योंकि उनका उद्देश्य छात्र को ज्ञानवान और सद्गुण सम्पन्न बनाने का ही नहीं होता, वस्न अर्थ प्राप्ति का भी होता है। हम देखते ही हैं कि आज स्कूलों में वेतन लेने वाले शिक्षक जो शिक्षा छात्रों को देते हैं, वह उनके जीवन को सच्चा जीवन नहीं बना पाती। दूसरे शब्दों में उन्हें सच्चा मानव नहीं बनाती। उनकी प्राप्त की हुई शिक्षा केवल अर्थ - प्राप्ति का साधन बन सकती है मुक्ति प्राप्ति में सहायक नहीं बन पाती। कारण यही है कि स्कूलों और कॉलेजों में छात्रों को अनुशासन, शिष्टाचार, विनय, सेवा-भावना, कर्तव्य-परायणता तथा सदाचार का पाठ नहीं पढ़ाया जात्रा, उनके चरित्र निर्माण और नैतिकता पर जोर नहीं दिया जाता। इसीलिये आज के छात्र उद्दण्ड व अविनयी बन जाते हैं
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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