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• अनमोल सांसें...
[१७०] तथा विनय और नैतिकता के अभाव में उनका जीला शून्य होकर रह जाता है।
• इस प्रकार धन के द्वारा प्राप्त की शिक्षा या ज्ञान, मनुष्य को समुचित लाभ प्रदान नहीं करा पाता, अत: धन ज्ञान-साप्ति का मध्यम मार्ग कहा जा सकता
तृतीय और लाभ रहित साधन सुमाषित में ज्ञान-प्राप्ति का तीसरा साधन भी बताया गया है। वह है अपनी विद्या देकर दूसरों से विद्या प्राप्त करना। यह तरीका लेने वाले और देने वाले, दोनों की अत्यन्त स्वार्थपरता का द्योतक है। ''तुम मुझे कुछ दो तभी मैं तुम्हें दूंगा' यह भावना निकृष्टता की पहचान कराती है। इस तरीके से ज्ञान प्राप्त करने पर जीवन नहीं बनता औरर इस प्रकार ली हुई) शिक्षा आत्मोन्नति का हेतु नहीं बन सकती।
सच्ची शिक्षा और सचा ज्ञान वही है, जिससे सर्वप्रथम जीवन में विनयगुण का आविर्भाव हो। विनय-गुण के द्वारा ही क्रमश: अय अनेक लाभ होते हैं।
विनय के द्वारा मनुष्य क्रोधी से क्रोगी व्यक्ति को भी शॉत और नम्र बना सकता है। मुझे गालियां देना!
एक संत बड़े ही नम्र स्वभाव के थे तथा सर्वदा लोगों का भला करने में तत्पर रहते थे। किन्तु कुछ दुष्ट व्यक्ति उन्हें अकारण ही तकलीफ दिया करते
थे।
. एक दिन एक दुर्जन व्यक्ति उनके पास आकर उन्हें बुरा-भला कहने लगा। संत ने अत्यन्त स्नेह-पूर्वक उसे समझाने क प्रयास किया किन्तु वह नहीं माना और गालियाँ देने पर उतारू हो गया।
कुछ देर पश्चात् सन्त वहाँ से ऊफर अपने घर की ओर रवाना हुए। किन्तु उस कटु-भाषी युवक ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। वह भी गाली देता हुआ उनके पीछे-पीछे चला आया। जब सन्त की कुटिया आ गई तो सन्त ने उससे कहा - "भाई, तू अब मेरे घर पर ही रह : जा ताकि तुझे गालियाँ देने के लिये चलकर इतनी दूर न जाना पड़े।
यह व्यक्ति सचमुच ही वहाँ रहने लिये तैयार हो गया। किन्तु थोड़े से समय वहाँ रहकर जब उसने सन्त का उच जीवन देखा तो अपने स्वभाव पर उसे बड़ी शर्मिन्दगी आई। परिणामस्वरूप वह वही रहकर सन्त की सेवा करने लगा।
एक दिन सन्त ने उससे कहा - 'माई, अब तू अपने घर जा।' व्यक्ति ने उत्तर दिया - "नहीं मावन्! मुझे यहीं पर आपकी सेवा में