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• अनमोल सांसें...
[१६८] विनयेन विद्या ग्राहं, पुष्वस्लेन धनेन च।
अथवा विद्यया विद्या, चहावं नैव कारणं। ज्ञान प्राप्त करने के पद्य में तीन साधन बताए गए हैं। उनमें से पहला है विनय के द्वारा गुरु को प्रसन्न करके विद्या प्राप्त की जा सकती है।
दूसरा उपाय है 'धन'! जिस व्यक्ति को विनय धारण करना कठिन जान पड़ता है तथा गुरु की सेवा-भक्ति करने में प्रसे अपनी हेठी मालूम होती है, वह वेतन द्वारा शिक्षक स्खकर ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
इनके अलावा तीसरा साधन है --- अपनी कोई कला अथवा किसी भी प्रकार की विद्या जो भी आती हो, उसे दूसरे को सिखाकर बदले में ज्ञान हासिल करना।
पद्य में कहा है कि विद्या-प्राप्ति के ही तीन कारण हैं, इनके अलावा और कोई साधन नहीं है । अब हमें यह देखना है कि इन साधनों में से कौनसा साधन उत्तम है, अर्थात् किस साधन के द्वारा सम्यकज्ञान प्राप्त किया जा सकता
सर्वोत्तम साधन :
ज्ञान प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है - विनय के द्वारा गुरु से ज्ञान हासिल करना। सच्ची सेवा और भक्ति के द्वारा गुरु के संतुष्ट करके उनसे ज्ञान-दान लेना ही उत्तम है।
हमारी भारतीय संस्कृति गुरु को बड़ा भारी महत्त्व देती है। क्योंकि सचे गुरु निस्वार्थ भाव से अपने शिष्यों को आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक ज्ञान देकर उनके तीनों प्रकार के कष्टों का नाश करते हैं। अपनी सदुपदेश - रूप
औषधि के द्वारा आत्मा के विषय-विकार रूपी रोगों को दूर करते हैं। उनके हृदय में अपने ज्ञान-दान का प्रतिपादन पाने की इच्छा नहीं होती। वे अपने विषय को सचा 'मनुष्य' बना देने की इच्छा रखते हैं।
ऐसे गुरु अपने शिष्य की सेवा-भक्ति में संतुष्ट होते हैं तथा हृदय से ज्ञान प्रदान करते हैं। आवश्यकता है शिष्य के विनयाान होने की। अविनीत और कटुभाषी शिष्य गुरु को असंतुष्ट कर देता है और ज्ञान-लाभ गी वंचित रह जाता है। 'उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा गया है -
अणासवा थूलवया कुसीला, मिपि वंडं पकरंति सीसा।
चित्ताणुया लहुदक्खोववेया, पसायए मेहु दुरासयपि।।
अर्थात् गुरु की आज्ञा को नहीं मानने वाले, कठोर वचन बोलने वाले, दुष्ट तथा अविनीत शिष्य, शान्त स्वभाव वा गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं। किन्तु गुरु की इच्छानुसार चलने वाले तथा गुरु की आज्ञा का अविलम्ब पालन