SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द प्रवचन : भाग १ नहीं चल सकी। सिकन्दर की अन्तिम आज्ञा यह थी कि मेरे दोनों हाथ कफन से बाहर रखना, ताकि मेरी शव यात्रा में साथ सहने वाले सब लोग जान लें की मैं खाली हाथ जा रहा हूँ और मेरे समान ही मूर्खता वे न करें! कितना मर्मस्पर्शी उदाहरण है? वास्तव में ही धन कितना भी क्यों न इकट्टा कर लिया जाय, छ: खण्ड का प्रज्य भी क्यों न मिल जाय, उससे मानव की आत्मा शांति का अनुभव नहीं कर सकती। सुख का वास्तविक और अक्षयकोष तो आत्मा में ही है और समस्त धन-लिप्सा का त्याग करके आत्मा में स्मण करने पर ही वह प्राप्त हो सकता हैं। कहने हैं कि एक बार कोई सक्कड सन्त मार्ग पर चल रहे थे। सामने से एक बादशाह अपनी सेना के साथ गुजरने लगे। सन्त को देखकर बादशाह ने उन्हें प्रणाम किया तो सहज ही सन्त ने पूछा - "कहाँ जा रहे हो?" हिन्दुस्तान को जितने।" बादशाह में उत्तर दिया। "अच्छा, हिन्दुस्तान को जीतने के बाद फिर क्या करोगे?" बादशाह ने कई देशों के नाम गिना देये कि उन्हें भी जीतूंगा। "उसके बाद?" सन्त मुस्कराते हुए बोले। "उसके बाद और भी अनेक देश जीतकर सारी पृथ्वी का बादशाह बनूंगा। मैं सिन्कदर हूँ, यूनान का बादशाह।" "ओह, तो बादशाह सिकन्दर, तुम सारी पृथ्वी के मालिक बनकर फिर क्या करोगे?" "कुछ नहीं, फिर तो मैं शांति धारण कर लूँगा।" "तो भाई !, इतनी परेशानियाँ : और मुसीबतों के बाद धारण करने वाली शांति को अभी ही क्यों नहीं अपना लो?" कहते हुए संत तो अपने रास्ते पर चल दिये तो सिकन्दर ने उसकी बात नहीं मानी और अन्त में जैसाकि मैंने अभी बताया था, उसे महान् पश्चाताप करना पड़ा। मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि मानव तभी शान्ति का अनुभव कर सकता है, जबकि वह समस्त बाह्य पदार्थों के प्रति रही हुई अपनी आसक्ति और कामनाओं का त्याग कर दे। तथा यह विचार करे कि मझे मनुष्य जन्म किसलिये मिला है? इस जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए? तथा इस लक्ष्य की पूर्ति किन साधनों से हो सकती हैं? आज के इस वैज्ञानिक युग में नाना प्रकार के असंख्य आविष्कार हुए हैं,
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy