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________________ · मंगलमय धर्म- दीप [४] से अधिक बढ़ा लेता है तथा अपनी कामनाओं पर नियंत्रण न रख सकने के कारण दूसरों का हक छीनने पर आमादा होता है तो हिंसा का जन्म होता है। इसलिए अहिंसा का पालन करने के लिए संयम की अनिवा आवश्यकता है। आज के युग में मनुष्यों की मनोवृत्तियाँ अत्यन्त दूषित हो गई हैं। जिसे देखो वही नीति - अनीति या पाप-पुण्य की परवाह किए बिना धन संग्रह करने में जुटा हुआ है। कहा भी है तृषणावश हैं जगजीव संभी, हित काज अकाज कछू न विचारे । धन सहस्त्र हुये तो चहे लख कोटि, असंख्य अनंत हि वाह प्रसारे ॥ जिमि ईंधन डारत वह्नि बढे, तिमली तृषणा धन चाह वधारे । चित्त धारत ज्ञान संतोष अमीरिख जो जियके सब काज सुधारे ॥ धन एवं भोग-विलास के साधनों का इच्छुक व्यक्ति अपनी आत्मा को सर्वथा भुला बैठता है। उसकी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और कामनाएँ केवल सांसारिक पदार्थों तक ही सीमित होती हैं तथा उसका है। वह इस परिग्रह की बदौलत सुख निकलता है। समस्त्र प्रयत्न इन्हीं वस्तुओं के लिये होता पाना चाहता है किन्तु परिणाम उलटा ही जब तक मानव धन-संपत्ति में आसक्त होकर उससे सुख पाने की आशा करता है, तब तक शांति का अनुभव नहीं कर पाता। उलटे तृष्णा की आग में जलता रहता है। धन का लोभ और लाकर मनुष्य को कभी भी आत्मिक और सच्चे सुख का अनुभव नहीं होने देता। तभी तो व्तहा गया है - ["Gold is worse poison to men's aoles than any mortal drug." शेक्सपियर - सब प्रकार के विषैले पदार्थों में, मनुष्य की आत्मा के लिये धन महाभयंकर विष है। 1 वास्तव में ही धन मानव के लिए महान दुःखों का कारण बनता है। इसके लालच में आकार वह झूठ बोलता है, चौसे करता है तथा हत्या जैसे महापाप से भी नहीं बच पाता। वह नाना प्रकार की यातनाएँ सहकर तथा गरीबोंका शोषण करके भी धनवान बनना चाहता है, क्योंकि उसे संसार के सारे सुखों का खजाना धन में ही दिखाई देता है। - किन्तु बंधुओ ! क्या धन से मनुष्य की आत्मा को भी तृप्ति, शांति और निराकुलता प्राप्त हुई है ? धन के द्वारा सुख की आकांक्षा, करना क्या मृगतृष्णा के समान ही नहीं है? अगर ऐसा न होत्रा तो सिन्कदर महान् मृत्यु के समय अपने समस्त धन का अम्बार लगाकर उस पर अश्रुपात करता हुआ क्यों कहता "हाय, इसी सम्पत्ति के लिये मैनें जीवन भर भयंकर संग्राम किये, लाखों माताओं को पुत्रहीन बनाया, सौभाग्यवती नारियों का सुहाग लूटा, पर अन्त में यह मेरे साथ
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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