________________
• [३]
आनन्द प्रवचन : भाग १ साबित होती है।
अहिंसा रूपी दिव्यास्त्र के द्वारा ही भारत ने सैकड़ो वर्षों की दासता के बंधन को काटा और आज भी भारत अपनी अहिंसक नीति पर चल रहा है। हिंसा कभी भी और कहीं भी उत्तम फल प्रदान नहीं कर सकती। कहा भी है -
"प्रसूते सत्वानां तदापिन वध: क्वापि सुकृतम्।" प्राणियों की हिंसा कभी और कहीं पर भी पुण्य को उत्पन्न करने वाली नहीं होती। यह तो एकान्त रूप से जघन्यतम पाप ही है।
इसलिए प्रत्येक प्राणि को हिंसा की भावना का परित्याग करके करूणा और दया की भावना को हृदय में स्थान लेना चाहिए। दयावान पुरुष दूसरों को सुख पहुँचाता है तथा स्वयं भी सन्तोष और सुत्र का अनुभव करता है। महाकवि शेक्सपियर ने भी कहा है - Mercy is twice blessed, it blesseth him that gives, and him that takes.
दया दोतरफी कृपा है। इसकी कृपा दाता पर भी होती है और पात्र पर भी।
वास्तव में ही दया मानवता का सर्वोच्च लक्षण है, जिसे धारण करनेवाला व्यक्ति परम शांति का अनुभव करता है। दयालु व्यक्ति 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' सिद्धांत को अपना लेता है तथा कबीर के शब्दों में करता है
दया कौन पर कीजिये, का निर्दय होय।
सांई के सब जीव हैं, कीरीजर दोय॥ अर्थात् - किस पर दया करें और किस पर न करें। छोटी सी चींटी से लेकर विशालकाय हाथी जैसे सभी प्राणी की एक ही परमात्मा के अंश हैं।
महापुरूष ऐसे ही समदर्शी होते हैं। उन्हें प्रत्येक प्राणी की आत्मा में परमात्मा दिखाई देता है। कहते हैं कि एक बार संत नामदेव अपने लिए खाना बना रहे थे। मोका पाकर एक कुत्ता उनकी बनाई हुई रोटियाँ ले भागा। यह देखते ही नामदेव हाथ में घी की कटोरी लेकर यह कहां हुए दौड़े - "भगवन् ! रोटियों रूखी है। कृपया घी लगा देने दीजिए। फिर भोग लगाइए।"
प्रत्येक आत्मा में परमात्मा को देखने वाले ऐसे महापुरुष ही धर्म के सच्चे स्वरूप समझते हैं तथा अहिंसा धर्म की आराधना कर सकते हैं।
संयम धर्म का दूसरा स्वरूप संयम है। संयम का अर्थ है - नियंत्रण। अपने मन को वश में रखना तथा अपनी इच्चशओं और आवश्यकताओं पर नियंत्रण रखना ही संयम कहलाता है। कोई भी व्यकि ा देश जब अपनी आवश्यकताओं को सीमा