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________________ • मंगलमय धर्म-दीप [६]] जिनके कारण मानव की भोग-लिप्सा को अतिव प्रश्रय मिला है और वह उनके उपयोग में लीन होकर अपनी पुरातन संस्कृति और विचार धारा को भूल गया है। उसे यह भी ध्यान नहीं है कि आध्यात्मिक भावना का परित्याग करके कोरी भौतिकता के पीछे पड़े रहने से जीवन कितना असात्विन, असंयमित और अपवित्र बन जाता हैं। संयम जीवन का आन्तरिक सौन्दर्य है, जिसके अभाव में बाह्य सौन्दर्य कितना भी बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो, फीका और निस्सा मालूम देता है। जो व्यक्ति आत्मिक सौन्दर्य का महत्त्व समझ लेता है वह संयम और नियम से अपने मन को आबध्द करता है। उसके जीव का एक-एक कण संयम की ज्योति से जगमगाता रहता संयम का अर्थ है - आत्मनिग्रह करना। मन, वचन, और शरीर पर नियन्त्रण रखना तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना। अपने आपको इस प्रकार नियन्त्रण में रखने वाला भव्य प्राणी ही अपनी आलिकशक्ति को जगा सकता है। भगवान महावीर ने भी संसार - सागर में गोते लगाने वाले प्राणियों को यही उपदेश दिया है : अप्पा चेव दयब्दो, अप्या हु खत दुइमो। अप्पा दन्तो सुही होई, अस्सिं लोपरत्व य॥ अपनी आत्मा का, अपने मन, इन्द्रिय और वाणी का दमन करना चाहिए। वास्तव में अपने आपका दमन करना दु:साध्य है। जो अपने आपका दमन कर लेता है, वह इस लोक और परलोक दोनों में सुखी होता है। आज मानव के जीवन में संयम का अभाव है। उसका जीवन पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में पड़कर विलासिता में बहता है। इन्द्रियों की दासता में जकड़ गया है तथा भोगों के चक्कर में फंसकर आत्म-भान को भूल बैठा है। संक्षेप में अपने मन पर काबू न रख पाने के कारण वह आत्मोन्नति की बजाय आत्म-अवनति के मार्ग पर चल पड़ा है। इसी का परिणाम है कि उसके जीवन से शान्ति का लोप हो गया हैं और अशान्ति की भूल-मलैय्या में भटक रहा है। उसका मन सुख और शान्ति की आकांक्षा करता हुआ भी उनी पा नहीं रहा है। सत्य तो यह है कि जीवन को ज्य, पवित्र समतामय, एवं सुखमय बनाने के लिये इन्द्रियों को वश में करना अनिवार्य है। किन्तु इन्द्रियों का स्वामी मन है और जब तक मन वश में नहीं हो जाम, इन्द्रियाँ वश में नहीं हो पाती तथा आत्म-संयम के द्वारा आत्मिक-सुख पाने को कामना गूलर का फूल बन कर रह जाती है। इसीलिये हमारे शास्त्र में कहा जाता है -- एगे जिए जिआ पंच, पंच जिए जिआ दस। दसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तू जिणामहं ।। - उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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