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________________ • [१५५) यही सयानो काम विचार रहे हैं। क्योंकि विचारों के वगैर कोई वस्तु नहीं करती।" तीनों मेंढक इस बात पर झगड़ने लगे।। वे समझ नहीं पा रहे थे कि वास्तव में कौनसी चीज चल रही है। कुछ देर झगड़ने के पश्चात् भी जब कोई निर्णय नहीं हो सका तो उन्होंने चौथे मेंढक की ओर देखा जो अब तक शान्त बैठा हुआ ध्यान से तीनों की बातें सुन रहा था। तीनों मेंढकों ने उससे पूछा कि - किसकी बात सच है? चौथा मेंढक गम्भीरतापूर्वक बोला,"भाइयों। तुममें से हर एक की बात ठीक है, गलत कोई नहीं। गति तख्ते में है, पानी में है ओर हमारे विचारों में भी चौथे मेंढक की इस बात पर तीनों को बड़ा क्रोध आया। क्योंकि तीनों में से कोई भी यह मानने को तैयार नहीं था नि उसी की बात पूर्णरूप से सत्य नहीं है, तथा बाकी दोनों की बातें सर्वथा असत्य नहीं है। एकाएक बड़े आश्चर्य की बात हुई कि अगड़ने वाले तीनों मेंढ़क मिल गये और उन्होंने चौथे मेंढक को धक्का देकर नदी में गिरा दिण। इस प्रकार मिथ्याज्ञान और अर्ध-ज्ञान से। अनर्थ होता है। दोनों ही प्रकार के व्यक्ति अपने आपको पूर्ण ज्ञानी मान लेते हैं तथा व्यर्थ की बहस-बाजी में लग जाते हैं। बन्धओ. इस प्रकार का मिथ्या-ज्ञान काल अहंकार का पोषण करता है। उससे मनुष्य के चारित्रिक विकास अथवा आत्मोन्नोते में कोई सहायता नहीं मिलती। हमें धार्मिक स्कूल की स्थापना करके इस हानि . और कमी से बचना है। आपका स्कूल सर्वप्रथम बालकों को विनयगुण से विभूषित करेगा और उसके परिणामस्वरूप वे अपने शिक्षक से जो भी विद्या प्राप्त करेंगे, वह अपना सही प्रभाव डालेगा तथा आपका स्कूल के लिए दान करना सार्थक होगा।। धार्मिक ज्ञान की वृध्दि के लिए दान करना वास्तव में ही सच्चा दान है। दोऊ हाथ उलीचिये इस वक्त आप जो कार्य कर रहे हैं वह बच्चों के हित के लिये है, समाज के संरक्षण के लिये है। अगर आप भावनापूर्वक काम करेंगे तो सफलता अवश्य मिलेगी। तथा आपको ही लाभ होगा। सन्त आगको दान के लिये उपदेश देते हैं तो उन्हें अपने पल्ले में कुछ नहीं रखना है, न पाई भी उसमें से व्यय नहीं करनी है। आपकी संस्था होगी और आप ही इसके ट्रस्टी रहेंगे। हमारा कुछ नहीं है, हम तो केवल मार्गदर्शक हैं। दान के लिये हम क्यों कहते हैं? इसका भी कारण है। वह यही कि लक्ष्मी का सदुपयोग दान से होता है। दान देना लक्ष्मी का ठीक तरह से संरक्षण
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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