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• यही सयानो काम ! होता है, जोकि "सत, चित् और आनन्द" रूप है। भगवत् गीता में भी बताया है .
___ "ज्ञानं लब्ध्या पशान्तिमचिरेणाधिगच्छति।" सम्यज्ञान की प्राप्ति कर लो पर यह आत्मा अजर-अमर शांति को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है।
तो बन्धुओ! आप इस धार्मिक विद्यालय की स्थापना करके अपने बालकों में ऐसे ही सचे ज्ञान का बीज वफा करने में सहायक बनेंगे। और इसके लिए दिया हुआ आपका दान सार्थक होगा।। अगर आपके बालकों में ऐसे संस्कारयुक्त ज्ञान का बीज जम गया तो वे अनेक सदगुणों का भण्डार बनकर शनै:-शनै: अक्षय सुख की प्राप्ति करेंगे। हितोपदेश में कहा गया है -
विद्या ददाति विणं, विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्म ततः सुखम्॥ विद्या विनय देती है, विनय से योग्यता मिलती है, योग्यता से धन, धन से धर्म और धर्म से अक्षय सुख प्राप्त होता है।
आवश्यकता केवल यह है कि विद्या को सही अर्थों में ग्रहण किया जाय, तथा उसे सही उपयोग में लिया जार॥ केवल अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करने और तर्कविर्तक करने में ही विद्या का उपयोग करना अज्ञानता है। अपने आपको पूर्ण ज्ञानी मानना कभी-कभी बड़ा अनिष्टकारी बन जाता है। एक उदाहरण से आप इसे भलीभांति समझ सकेंगे। अर्थ-ज्ञान से अनर्थ
एक नदी में लकड़ी का एक तख्ता बह रहा था। उस पर चार मेंढ़क बैठे हुए थे। तख्ता पहले किनारे पर पड़ा था किन्तु पानी का बहाव बढ़ जाने से वह अचानक ही बह चला था। नगरों मेंढ़क तख्ते के बहने से बड़े प्रसन्न हुए, क्योंकि इससे पहले उन्होंने कभी इस प्रकर की जल-यात्रा नहीं की थी।
थोड़ी देर तैरने का आनन्द लेने के पश्चात् एक मेंढ़क बोला - "यह तख्ता बड़ा अजीब है, जिन्दों के समान चलता है। मैंने पहले कभी ऐसा तख्ता नहीं देखा।"
पहले की बात सुनकर दूसरा। मेंढ़क बोला - "नहीं मित्र! यह तख्ता तो अन्य तख्तों के जैसा ही है। यह नवयं नहीं चल रहा है, वरन् नदी हमें और इसको समुद्र की ओर ले जा रही है।"
अब तीसरा मेंढक अपने ज्ञान का उपयोग करने लगा। बोला - "तुम दोनों अज्ञानी हो! अरे न तो तख्ता चल रहा है और न ही नदी। चल तो हमारे