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________________ • [१५३] यही सयानो काम किसी को वस्त्र दान दिया तो वह वस्त्र छः महनी, या दो वर्ष में तो फट ही जायगा। उससे अधिक नहीं चलेगा। इसी प्रकार छन्न-दान दिया, अर्थात् भूखे को भोजन कराया तो सुबह भोजन कराने पर शाम को पुनः उसका पेट खाली हो जायगा। विद्या दान एक ऐसा दान है, जिसे आपने दिया और ग्रहण करने वाले ने सम्यरूप से ग्रहण किया तो उसकी आत्मा की भूख केवल इसी जन्म के लिए नहीं अपितु जन्म-जन्मांतरों के लिए मिट जायगी। आप इसी विद्या दान में सहायक बनने का प्रयत्न कर रहे हैं, यह हर्ष की बात है। साथ ही सही अर्थों में विद्या दान दिलाने जा रहे हैं। वैसे बालक इन धार्मिक स्कूलों के अलावा सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में भी विद्या प्राप्त करते हैं किन्तु वह शिक्षा, शिक्षा कैसे कहला सकती है जो व्यक्ति को केवल धन कमाने में समर्थ बनाती है। मान लिया कि वह शिक्षा प्राप्त करके आपका पुत्र वकील, इंजीनियर, डॉक्टर या बैरिस्टर आदि कोई उच्च डिगरी प्राप्त नागरिक बन जाएगा और प्रचुर मात्रा में धन कमा लेगा। किन्तु वह धन संसारिक सुखों की उपलब्धि के अलावा उसे और क्या दिला सकेगा ? सांसारिक भोगोपभोग की वस्तुएँ नष्ट होने वाली हैं और बहुत चली तो इस जन्म के अन्त त्रक साथ देंगी। पर उससे आत्मा का क्या बनने वाला है? उसको तो रंच मात्र 'गो लाभ नहीं हो सकेगा। उलटे अधिक धन प्राप्त करके व्यक्ति उसके कारण अधिक पापों का ही उपार्जन करेगा और आत्मा को अधिक संकट में डाल लेगा । ज्ञानात् मोक्षः इसलिये मनुष्य को ऐसा ज्ञान हासिल करना चाहिये जिससे वह लौकिक और लोकोत्तर, सभी प्रकार की निधियों को प्राप्त कर सके। सचा ज्ञान वही है, जिसको प्राप्त करके मनुष्य अपने अविवेक का नाश करे, कर्तव्य और अकर्तव्य को समझे, आत्मा के सचे स्वरूप को जाने तथा उसकी अनन्त शक्ति पर विश्वास करे। जो व्यक्ति सही अर्थों में विद्या प्राप्त करता है अर्थात् सम्यक्ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह अपने मन, वचन और शरीर के धनिष्ट व्यापारों को रोककर अपनी आत्मा को उत्तरोत्तर निर्मल बनाता है। घोर उपसर्ग सत्संकल्प से नही डिगता तथा संसार में रहकर भी संसार से अलिप्त जल में कमलवत् रहता है । उसका जीवन तप और तप्राग की भावना से परिपूर्ण तथा सदाचार की समुज्ज्वल प्रतिमा बनता है। वह अपना प्रत्येक कदम अत्यन्त सावधानी से सोच-विचार कर रखता है। उसका अन्तःकरण । इस संसार को बन्दीगृह मानता है तथा प्रतिपल इससे छुटकारा पाने की भावना रखता है। परिणामस्वरूप : परीषह आने पर भी अपने "बोधे बोधे सच्चिदानंदभासः । " - - तत्वामृत अर्थात् निरंतर ज्ञानाभ्यास करने से आत्म का वह आदर्श स्वरूप प्रतीत
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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