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- कटुकवचन मत बोल रे
[१४८] ही अपमानित होता है। कविवर रहीम ने इसीलिये कहा है -
रहिमन जिला बाझरी, कहि गई सरग पाताल ।
आपु तो कह भीकर गई, जूती खात कपाल। सुनकर आपको हँसी आएगी, पर बात सत्य है। वास्तव में ही यह जीभ चाहे जो कहकर स्वयं तो दांतो की पहरेदारी में इस मुँह रूपी किले में छिप कर बैठ जाती है, किन्तु उसकी बातों देव परिणामस्वरूप बेचारा सिर जूतियाँ खाना शुरू करता है और इस अनिष्टकारी तथा कोमत्रांगी सुन्दरी को कोसता रहता है।
___ इसलिये मेरे भाइयों! अगर अपने उत्तमांग, इस मस्तक की सुरक्षा चाहते हो तो जिह्वा को वश में रखो। मीटा. बोलने में तुम्हारी हेठी नहीं होगी! अभी-अभी मैंने बताया ही है कि 'सूर्याभ देवता' भी अपने आभियोगिक - चाकर देवता को 'देवानुप्रिय' कहकर सम्बोधन करते हैं। तो हमारे लिए किसी को प्रिय और मीठे शब्दों से सम्बोधन करने में कौनसी शर्म की बात है? अपने से छोटों को भी अगर हम प्रिय सम्बोधन से पुकार हैं तो वह हमारे गौरव को बढ़ाता ही है, घटाता नहीं। प्रत्येक महापुरुष वाणी की मधुरता से ही महापुरुष कहलाता है। जबान से कड़वे-वचन रूपी पत्थर बरसाने वाले को आज तक किसी ने महापुरुष नहीं कहा।
आशा है आप वचनों के महत्त्व को समझ गये होंगे और यह भी समझ गये होंगे कि अनेकानेक पुण्यों के फलस्वरूप प्राप्त वाणी का दुरूपयोग न करके किस प्रकार उससे नवीन शुभ-कम का बन्धन किया जा सकता है, और अन्त में उच्च गति को पाया जा सकता है। अगर आपको भी अपनी आत्मा को निस्तर विशुध्द बनाते हुए जन्म-मरण से मुक्त होने की अभिलाषा है तो सर्वप्रथम अपनी वाणीपर अंकुश रखना सीखें तथा मधुरम्मषी बनने का प्रयत्न करें।