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________________ कटुकवचन मत बोलो रे गुप्तियों में भी 'वचन गुप्ति' आती है। इस प्रकार हमारे यहाँ बोलने पर तीन-तीन प्रतिबंध लगाए गए हैं। अप्रिय, कठोर और मर्मकारी भाषा का हमारे लिये पूर्ण निषेध सारांश मेरे कहने का यही है कि मानव मात्र को मधुर शब्दों का प्रयोग करना चाहिये। इससे घर में, परिवार में, समाज में वैर-विरोध पैदा नहीं होता। बुध्दिमानों का यही प्रयत्न रहता है कि वे स्वयं अपने मधुर वचनों से आपसी व्यवहार को सुन्दर बनाए रखें तथा दूसरों को भी इसी प्रकार की शिक्षा देते रहें। उनका सभी से यही कहना होता है : मत दीजो चतुर नर गाली। पियों समका रस की प्याली रे।। थे कटुक वाक्य मत बोलो, क्यों वैरासाओ खाली रे॥ सरल भाषा में कही गई कितनी सुन्दर बात है? हम सब चाहते तो यह हैं कि सब मनुष्य हमारी बात मानें, हमारा आदर-सम्मान करें और हमसे प्रभावित हों, किन्तु क्या चाहने मात्र से ही आकांक्षा पूरी हो जाएगी? नहीं, इसके लिये प्रयत्न करना पड़ेगा और इसी का तरीका कवि में बताया है कि "तुम कटु-वचन मत बोलो, सदैव समता रूपी अमृत का पान करते हो ताकि जबान से भी मधुर-रस ही प्रवाहित हो। कड़वे वचनों से कोई लाभ होसेल नहीं होता। केवल वैर ही बढ़ता है। जिह्वा किसलिये मिली है संत सुकरात का कथन : "ईश्वर ने हमें दो कान दिये हैं और दो आँखें, पर जिह्वा एक ही दी है। वह इसलिये कि हम बहुत अधिक सुनें, बहुत अधिक देंखे, लेकिन बोले कम-बहुत कम।" एक जापानी कहावत भी है - "जिला केवल तीन इंच लम्बी होती है। किन्तु वह छ: फुट लम्बे आदमी का कत्ल करवा सकती है।" कहावत सर्वथा सत्य है। जिला का आघात तो तलवार के आधात से भी भयानक होता है। क्योंकि तलवार केवल शरीर फ चोट करती है किन्तु जीभ मन पर गहरी चोट पहुंचाती है, और वह जल्दी से ठीक भी नहीं होती। जिह्वा में ही मृदुता रूपी अमृत विद्यमान रह सकता है और जिला में ही कटता रूपी विष। जिसकी जिह्वा में यह अमृत होता है, वह लाखों को अपना बना लेता है, तथा कटुता रूप-विष होने पर अपने को भी बेगाना बना कर छोड़ता है। अपने वचनों से ही मनुष्य सम्मान का पारा बनता है और अपने वचनों से
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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